Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 36 卐 1 - 1 - 1 - 1 // श्रीश न्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आत्मोत्थान में सहायक होता है, जो आचरण रूप से जीवन में प्रयुक्त होता है / जब तक ज्ञान आचरण का रूप नहीं लेता अर्थात् ज्ञान के अनुरूप जीवन के प्रवाह को नया मोड़ नहीं दिया जाता, तब तक मुक्ति के मार्ग को जानते-पहचानते हुए भी वह (आत्मा) उसे तय नहीं कर पाता है / अतः अपवर्ग-मोक्ष की और बढ़ने के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों के समन्वय की आवश्यकता है / इसी बात को सुत्रकार ने 'परिज्ञा' शब्द से स्पष्ट किया है / इस तरह शस्त्रपरिज्ञा का अर्थ हुआ-द्रव्य और भाव शत्रों की भयङ्करता को जान समझ कर उसका परित्याग करना अर्थात् शस्त्र रहित बन जाना / वस्तुतः संसार परिभ्रमण एवं अशान्ति का मूल कारण शस्त्र ही है / सब तरह के दुःख-दैन्य एवं विपत्तियें शस्त्र-शस्त्रों की ही देन हैं / भगवान महावीर की इस बात को आज के वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं / शत्रों की शक्ति पर विश्वास रखने वाले राजनेताओं का विश्वास भी लड़खड़ाने लगा है / वे भी इस तरह की भाषा का प्रयोग करने लगे हैं कि विश्व शान्ति के लिए जल, स्थल एवं हवाई सभी तरह की सेनाओं के केन्द्र हटा देने तथा सभी तरह के बम्बों, राकेटों एवं आणविक शस्त्रों को समाप्त करने पर ही विश्व, शान्ति का सांस ले सकेगा / वस्तुतः सत्य भी यही है / शस्त्र शान्ति के लिए भयानक खतरा है / अतः अनन्त शान्ति की और बढ़ने वाले साधक को सब से पहले शस्त्रों का परित्याग करना चाहिए / इसी अपेक्षा से सभी तीर्थकर अपने प्रथम प्रवचन में शस्त्र-त्याग की बात कहते हैं / इस तरह पहले अध्ययन में शस्त्रों के त्याग की बात कही गई है, यदि आज की भाषा में कहुं तो निश्शस्त्रीकरण-शस्त्ररहित होने का मार्ग बृताया गया है। प्रस्तुत प्रथम अध्ययन सात उद्देशकों में विभक्त है / सातों उद्देशकों में विभिन्न तरह से छह काय के जीवों की हिंसा एवं हिंसाजन्य शस्त्रास्त्रों से होने वाले नुक्सान का एक सजीव शब्द-चित्र चित्रित किया गया है / यहां हम अधिक विस्तार में न जाकर प्रस्तत अध्ययन के प्रथम उद्देशक पर विचार करेंगे / प्रस्तुत उद्देशक में आत्मा एवं कर्म बन्ध के हेतुओं के संबन्ध में सोचा-विचारा गया है / इस उद्देशक को प्रारम्भ करते हुए सूत्रकार ने-"सुयं मे आउस !...." इत्यादि सूत्र का उच्चारण किया है / वर्तमान में उपलब्ध आगम-साहित्य आर्य सुधर्मा स्वामी और श्री जम्बू स्वामी इन दोनों महापुरुषों के सम्वाद रूप में है / आगम की विश्लेषणा पद्धति से यह स्पष्ट हो जाता है कि जम्बू स्वामी अपने आराध्य देव आर्य सुधर्मा स्वामी से विनम्रतापूर्वक शास्त्र सुनने की भावना अभिव्यक्त करते हैं / वे इस बात को जानने के लिए अत्यधिक उत्सुक हैं कि श्रमण भगवान महावीर ने द्वादशांगी गणिपिटक-आगमों में किन भावों को व्यक्त किया है ? आत्मा को कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त करने के लिए साधना का क्या तरीका बताया है ? यद्यपि, प्रस्तुत सूत्र में ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता कि श्री जम्बू स्वामी ने आचाराङ्ग के भाव व्यक्त करने के लिए अपने गुरुदेव आर्य सुधर्मा स्वामी से प्रार्थना की है / परन्तु, अन्य आगमों की वर्णन