Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 34 卐१-१-१-१॥ श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन रूप है / यही कारण है कि सूत्रकार ने दूसरा मंगलाचरण न करके "सुयं मे..." पद को मंगलाचरण के रूप में देकर, पुरातन परंपरा को सुरक्षित रखा है | मंगलाचरण के विवेचन में हम इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि द्वादशांगी श्रमण भगवान महावीर की धर्मदेशना का संग्रह है / भगवान महावीर ने द्वादशांगी का अर्थरूप से प्रवचन किया था, परन्तु तीर्थकर भगवान का वह प्रवचन जिस रूप में ग्रन्थबद्ध या सूत्रबद्ध हुआ है, उस शब्द रूप के प्रणेता गणधर हैं / आगमों में एवं अन्य ग्रन्थों में जहां यह कहा गया है कि जैनागम-द्वादशांगी तीर्थंकर-प्रणीत है, उसका तात्पर्य यह है कि तीर्थकर उसके अर्थरूप से प्रणेता हैं अर्थात् गणधरों द्वारा की गई सूत्ररचना का आधार तीर्थंकरों की अर्थरूप वाणी ही है / अतः इस अपेक्षा से जैनागमों को तीर्थकर-प्रणीत कहा जाता है / द्वादशांगी वाणी में श्री आचाराङ्ग सूत्र का अग्रिम स्थान है / श्रमण संस्कृति में आचार का महत्त्वपूर्ण स्थान है / वह कर्म क्षय का महत्त्वपूर्ण साधन माना गया है / कर्म-बन्धन से सर्वथा मुक्त होने के लिए सम्यग् दर्शन और ज्ञान के साथ चारित्र-आचार का होना अनिवार्य है / आचरण के अभाव में मात्र ज्ञान से मुक्ति का मार्ग तय नहीं हो पाता / इसलिए आचरण को प्रमुख स्थान दिया गया है / नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु ने भी कहा है-आचार ही तीर्थंकरों के प्रवचन का सार है, मुक्ति का प्रधान कारण है / अतः पहले इसका अनुशीलन-परिशीलन करने के पश्चात् ही अन्य अङ्ग शास्त्रों के अध्ययन में गति-प्रगति हो सकती है / यही कारण है कि द्वादशांगी का उपदेश देते समय तीर्थकर सब से पहले आचार का उपदेश देते हैं और गणधर भी इसी क्रम से सूत्ररचना करते हैं / प्रस्तुत सूत्र में आचार का विस्तृत विवेचन किया गया है / साधारणतः आचार शब्द का अर्थ होता है-आचरण, अनुष्ठान / प्रस्तुत सूत्र में आचार शब्द साधु के आचरण या संयममर्यादा से संबद्ध है और अङ्ग शास्त्र को कहते हैं / अतः आचार+अङ्ग-आचाराङ्ग का यह अर्थ हआ कि वह शास्त्र जिसमें साध-जीवन से संबंधित आचरण या क्रिया-काण्ड का विधान किया गया है, संयम-साधना का निर्दोष मार्ग बताया गया है / आचाराङ्ग सूत्र दो श्रुतस्कंधों में विभक्त है / पहिले श्रुतस्कंध में ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का सूत्र शैली में अच्छा विश्लेषण किया गया है / छोटेछोटे सूत्रों में गंभीर अर्थ भर दिया है / दूसरे श्रुतस्कंध में प्रायः चारित्राचार का वर्णन है / विषय के अनुरूप उसकी निरूपणा शैली भी सीधी-सादी है और भाषा भी सरल रखी गई है / दोनों श्रुतस्कंधों में पच्चीस अध्ययन हैं / पहले श्रुतस्कंध में नव और दूसरे श्रुतस्कंध में सोलह अध्ययन हैं / प्रत्येक अध्ययन कई उद्देशकों में बंटा हुआ है / एक अध्ययन के अनेकों विभाग में से एक विभाग को अथवा एक अध्ययन में प्रयुक्त होने वाले अभिनव विषय को नए शीर्षक से प्रारम्भ करने की पद्धति को आगमिक भाषा में उद्देशक कहते हैं / आचाराङ्ग सूत्र