Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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१२
आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध)
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पठमं अज्झयणं बीओ उद्देसो
प्रथम अध्ययन का द्वितीय उद्देशक
प्रथम उद्देशक में आत्मा के अस्तित्व का तथा आत्मा का लोक, कर्म और क्रिया के साथ किस तरह का संबंध है और यह आत्मा संसार में क्यों परिभ्रमण करती है, इस बात को समझाया गया है। इस द्वितीय उद्देशक में सूत्रकार अज्ञानी जीव किस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों को सताते हैं, परिताप देते हैं इसका दिग्दर्शन कराते हैं। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है'
पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा
(१०)
अट्टे लोए परिजुण्णे दुस्संबोहे अविजाणए अस्सिं लोए पव्वहिए तत्थ तत्थ पुढो पास, आतुरा परितावेंति ।
कठिन शब्दार्थ - अट्टे - आर्त-पीड़ित, परिजुण्णे - परियूनः परिजीर्ण-हीन- विवेक से रहित, दुस्संबोहे - दुस्संबोध: - कठिनता से बोध कराने योग्य, अविजाणए - अविज्ञायक:अज्ञानी, पव्वहिए - प्रव्यथिते पीड़ित, पुढो - पृथक् - भिन्न-भिन्न, पास आतुरा - आतुराः - आतुर लालायित, परितावेंति - परिताप देते हैं।
भावार्थ - यह लोक (प्राणि वर्ग) आर्त - दुःखी (पीड़ित) है, विवेक रहित है, दुःख से बोध कराने योग्य है, अज्ञानी है। इस लोक के अर्थात् पृथ्वी - पृथ्वीकाय के पीड़ित होने पर भी वे आतुर जीव भिन्न-भिन्न कार्यों के द्वारा भिन्न-भिन्न रूप से इसे परिताप देते हैं। यह तू देख ! समझ ! विवेचन इस संसार में जीव संत्रस्त, व्यथित एवं आर्त है। विषयासक्त अज्ञानी जीव
अपने स्वार्थ के लिये विविध प्रकार से पृथ्वीकाय का आरंभ समारम्भ करते हैं उन जीवों को
संताप एवं पीड़ा पहुँचाते हैं। इसलिये आर्य सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं।
कि - "हे शिष्य ! तू इन जीवों की स्वार्थ परायणता को देख-समझ” । अर्थात् संसारी प्राणियों
की इस कार्य पद्धति को देख-समझ कर पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा मत कर।
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'आर्त' शब्द की व्याख्या करते हुए टीकाकार ने एक गाथा में बताया है।
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य-देख,
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