Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीसरा अध्ययन - प्रथम उद्देशक - दुःख मुक्ति का उपाय १२१ 參參參參參參參參參參參參參參密密事部部密密部事部部部举參參參參密聯部部轮廓部部部够帮帮幹部部 मनुष्य, तिर्यंच संबंधी भोगों के लिए भी इसी प्रकार नौ भेद हैं। ये कुल मिला कर अठारह भेद . हो जाते हैं।
सीउसिणच्चाई का अर्थ है शीतोष्ण त्यागी अर्थात् जो साधक शीत परीषह और उष्ण परीषह अथवा अनुकूल और प्रतिकूल परीषह को समभाव से सहन करता हुआ उनमें निहित वैषयिक सुख और पीड़ाजनक दुःख की भावना का त्याग कर देता है।
अरइरइसहे का अर्थ है असंयम में अरति और संयम में रति रखने वाला अर्थात् संयम और तप में होने वाली अप्रीति और अरुचि को जो समभाव से सहन करता है - उन पर विजय प्राप्त करता है। ___फरुसयं णो वेएइ का तात्पर्य है वह साधक परीषहों और उपसर्गों को सहने में जो कठोरता-कर्कशता या पीड़ा उत्पन्न होती है वह उस पीड़ा रूप में वेदन - अनुभव नहीं करता क्योंकि वह मानता है कि मैं तो कर्मक्षय करने के लिये उद्यत हूँ। ये परीषह और उपसर्ग आदि तो मेरे कर्मक्षय करने में सहायक हैं। ज्ञानी और अज्ञानी में यही अंतर है कि ज्ञानीजन धर्माचरण में होने वाले कष्टों को समझ कर उसका वेदन (अनुभव) नहीं करता जबकि अज्ञानीजन कष्ट का वेदन करता है।
जागरवेरोवरए का भाव है कि-जो साधक जागर अर्थात् असंयम रूप भाव निद्रा का त्याग करके जागने वाला है और वैरोपरत - वैर से उपरत - निर्वृत - वैरभाव का त्याग करने वाला है वही सच्चा. वीर - कर्मों को नष्ट करने में सक्षम - है। .... ..... . .. (98)
जरामच्चुवसोवणीए णरे सययं मूढे धम्म णाभिजाणइ।
कठिन शब्दार्थ - जरामच्चुवसोवणीए - जरा और मृत्यु के वशीभूत हुआ, णाभिजाणइनहीं जानता है। .' भावार्थ - जरा (बुढ़ापा) और मृत्यु के वशीभूत हुआ मनुष्य सतत मोह मूढ़ बना रहता है। वह धर्म को नहीं जानता है। .. - विवेचन - जो जागरणशील नहीं है वह जरा और मरण के वशीभूत होकर मोह से मूढ़ बना हुआ दुःखों के प्रवाह में बहता रहता है। वह धर्म के स्वरूप को भी नहीं जान पाता इसलिये वह दुःखों से मुक्त भी नहीं हो सकता।
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