Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीसरा अध्ययन - द्वितीय उद्देशक - पापों से विरत रहने की प्रेरणा १३५ RRRRRRRRRRR@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@RRRRRRRRRRBS पासे - देखे, णिरयं - नरक, महंतं - महान्, वहाओ - प्राणीवध से, विरए - विरत, छिंदिज्ज - छेदन करे, सोयं - शोक या भाव स्रोत का, लहुभूयगामी - लघुभूतगामीलघुभूतकामी - मोक्ष गमन का इच्छुक। ___ भावार्थ - वीर पुरुष क्रोध, मान और माया का हनन करे तथा लोभ को महान् नरक के रूप में देखे। इसलिए वीर पुरुष प्राणिवध से निवृत्त हो जाय और द्रव्य तथा भाव से लघुभूत बन कर, मोक्ष गमन की इच्छा रखने वाला साधक शोक या भाव स्रोतों (विषय वासनाओं) का छेदन करे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में कषायों की भयंकरता बतलाते हुए लोभ को नरक कहा गया है। क्योंकि लोभ के कारण हिंसादि अनेक पाप होते हैं जिनसे प्राणी सीधा नरक में जाता है अतः मुमुक्षु पुरुष को कषायों का त्याग कर देना चाहिये। ___"लहुभूयगामी" के दो रूप होते हैं - १. लघुभूतगामी और २. लघुभूतकामी। लघुभूत - जो कर्मभार से सर्वथा रहित हैं - मोक्ष या संयम की प्राप्ति के लिए जो गतिशील है वह 'लघुभूतगामी' है और जो लघुभूत (द्रव्य और भाव से हल्का) बनने की कामना - मनोरथ करता है वह 'लघुभूतकामी' कहलाता है।
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के छठे अध्ययन में लघुभूत तुम्बी का उदाहरण देकर स्पष्ट किया है कि जैसे सर्वथा लेपरहित होने पर तुम्बी जल के ऊपर आ जाती है वैसे ही लघुभूत आत्मा संसार से ऊपर उठ कर मोक्ष प्राप्त कर लेती है। पापों से विरत रहने की प्रेरणा
(१९२) गंथं परिण्णाय इहज वीरे, सोयं परिणाय चरिज दंते। उम्मज लर्बु इह माणवेहिं, णो पाणिणं पाणे समारभिजासि-त्ति बेमि।
॥ तइयं अज्झयणं बीओईसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ - गंथं - ग्रंथ (परिग्रह) को, परिण्णाय - ज्ञ परिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग कर, अज्ज - आज ही, दंते - दान्त - दमन करके, उम्मज्ज - उन्मज्जन - संसार समुद्र से तिरना, समारभिज्जासि - समारम्भ करे।
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