Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 359
________________ आचारांग सूत्र ( प्रथम श्रुतस्कन्ध) भावार्थ हेय और उपादेय पदार्थों को जान कर भगवान् महावीर स्वामी ने छद्यस्थ अवस्था में न स्वयं पाप किया, न दूसरों से करवाया और करते हुए को अच्छा भी नहीं जाना अर्थात् पाप कर्म करते हुए प्राणी की अनुमोदना तक भी नहीं की । विवेचन - कुछ लोग यह कहते हैं कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने नाव में बैठ कर गंगा नदी को पार किया था। उनका यह कहना आगमानुकूल नहीं है क्योंकि नाव पानी में चलती है उससे पानी के जीवों की हिंसा तो प्रत्यक्ष ही है तथा जलचर जीवों की हिंसा भी संभावित है और यह प्राणातिपात नाम का पहला पाप है । इस गाथा में बतलाया गया कि भगवान् ने तीन करण तीन योगों से सभी पापों का त्याग कर दिया था अतः उनके लिये नाव में बैठने की बात कहना आगम विरुद्ध है । ३३४ 888 - (५२१) गामं पविस्स यरं वा, घासमेसे कडं परट्ठाए । सुविसुद्धमेसिया भगवं, आययजोगयाए सेवित्था ॥ कठिन शब्दार्थ - पविस्स - प्रवेश करके, घासं आहार की, एसे गवेषणा करते थे, कडं - कृत किये गये, परट्ठाए - दूसरों के लिए, सुविसुद्धं सुविशुद्ध उद्गम, उत्पादना और एषणा के दोषों से रहित आहार की, एसिया - गवेषणा करके, आयय जोगयाएआयत योग से मन, वचन, काया के योगों की स्थिरता पूर्वक, सेवित्था - सेवन करते थे। भगवान् ग्राम या नगर में प्रवेश करके दूसरे गृहस्थों के लिए बने हुए आहार की गवेषणा करते थे। सुविशुद्ध (उद्गम, उत्पादना, एषणा के दोषों से रहित) आहार को ग्रहण करके आयत योग से - मन, वचन, काया की स्थिरता पूर्वक संयत विधि से उसका सेवन करते थे। भावार्थ निर्दोष आहार ग्रहण (५२२) अदु वायसा दिगिंच्छित्ता, जे अण्णे रसेसिणो सत्ता । घासेसणाए चिट्ठति, सययं णिवइए य पेहाए । Jain Education International - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org

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