Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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नववा अध्ययन - चौथा उद्देशक - भगवान् की ध्यान साधना
और और कभी
स्वार्थ को त्याग कर बाड़े और पिंजरे में रोके हुए पशु और पक्षियों की रक्षा की। अतः अनुकम्पा उत्कृष्ट धर्म है। वह पापजनक और सावद्य कभी नहीं हो सकती। प्रश्न व्र के प्रथम संवर द्वार में अहिंसा को 'भगवती' कहा है और उसके साठ नाम दिये हैं उन में अनुकम्पा, दया, रक्षा आदि शब्द भी दिये हैं और यहाँ तक बतलाया है .
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" सव्वजग जीव खखण दयझ्याए भगवया पावयणं सुकहियं "
अर्थ - जगत् के सब जीवों की रक्षा रूप दया के लिए तीर्थंकर भगवान् ने द्वादशांग रूप प्रवचन फरमाया है। अतः श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की गोशालक विषयक अनुकम्पा को पाप बताकर भगवान् को ‘चूका' (भूल करने वाला) बताना अनुचित है।
(५२८)
सयमेव अभिसमागम्म, आययजोगमायसोहीए ।
अभिणिव्वुडे अमाइल्ले आवकहं भगवं समिआसी ॥ एस विही अणुक्कंतो माहणेण मईमया, बहुसो अपडणं भगवया एवं रीयंति ॥ त्ति बेमि ।
॥ चउत्थोद्देसो समत्तो ॥
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तत्त्वों को भलीभांति जानकर,
कठिन शब्दार्थ - सयमेव - स्वयमेव, अभिसमागम्म आययजोगं आयत योग - मन, वचन, काया की संयत प्रवृत्ति, आयसोहीए आत्मशुद्धि के द्वारा, अभिणिव्वुडे - अभिनिवृत कषायों से निवृत्त उपशांत, आवकहं - जीवन पर्यन्त • ( यावज्जीवन), समियासी- समिति गुप्ति के पालक थे।
भावार्थ - स्वयमेव तत्त्वों को भलीभांति जान कर आत्म शुद्धि के द्वारा मन, वचन और काय योगों को वश में करके भगवान् कषायों से निवृत्त - शांत हो गये थे। उन्होंने जीवन पर्यंत माया रहित होकर पांच समिति तीन गुप्ति का पालन करते हुए साधना की ।
॥ उवहाणसुयं णवमज्झयणं समत्तं ॥
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