Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
३३८ . आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR में भी, परक्कममाणो - शुभ (सद्) अनुष्ठानों में पराक्रम करते हुए, सइंपि - एक बार भी, कुवित्था - किया।
भावार्थ - भगवान् अकषायी, अनासक्त, शब्द और रूप आदि विषयों में अमूर्च्छित एवं आत्म-समाधि में स्थित होकर ध्यान करते थे। इस प्रकार सद्अनुष्ठानों में पराक्रम करते हुए भगवान् के छद्मस्थावस्था में एक बार भी प्रमाद नहीं किया।
विवेचन - जब तक ज्ञानावरणीय आदि चार घाती कर्म सर्वथा क्षीण न हों तब तक छद्मस्थावस्था कहलाती है। प्रस्तुत गाथा में कहा गया है कि भगवान् ने छद्मस्थ अवस्था में एक बार भी प्रमाद नहीं किया। प्रमाद के मुख्य पांच भेद हैं-मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा। भगवान् इन पांचों प्रमादों से रहित हो कर प्रतिपल अप्रमत्त साधना में संलग्न रहते थे।
जैन धर्म की एक संप्रदाय विशेष का कहना है कि - भगवान् महावीर स्वामी ने वैश्यायन बाल तपस्वी के द्वारा गोशालक पर छोड़ी हुई तेजोलेश्या से गोशालक पर अनुकम्पा कर के उसे बचाया, यह भगवान् ने भूल (चूक) की, इसलिए वे भगवान् को चूका' बताते हैं। उनका यह कहना उचित नहीं है। क्योंकि इस गाथा में स्पष्ट कहा है कि भगवान् ने छद्मस्थ अवस्था में भी कभी भूल नहीं की तथा गाथा क्रमांक ५२० में बतलाया गया है कि भगवान् ने कभी पाप का सेवन नहीं किया। इसलिए भगवान् को 'भूला' या 'चूका' कहना उनका अज्ञान मूलक भूल (चूकना) भरा है।
दूसरी बात यह है कि - दीक्षा लेने के बाद छद्मस्थ अवस्था में तीर्थंकरों में कषाय कुशील नियंठा होता है और वह मूलगुण व उत्तरगुण दोष अप्रतिसेवी होता है अर्थात् कषायकुशील नियठा मूलगुण व उत्तरगुण में किसी प्रकार का, दोष नहीं लगाता है। इसलिए भगवान् को 'चूका' बताना असत् दोषारोपण करना है।
. तीसरी बात यह है कि. जैन धर्म में प्राणातिपात आदि अठारह पाप बताये गये हैं उनमें अनुकम्पा का पाप नहीं बताया गया है बल्कि अनुकम्पा तो महान् धर्म है। दया (अनुकम्पा)
और दान, ये तो जैन धर्म के प्राण हैं। यदि जैन धर्म में से दया (अनुकम्पा) और दान को निकाल दिया जाय तो फिर वह निष्प्राण खोखला रह जायेगा। अनुकम्पा का उत्कृष्ट उदाहरण उत्तराध्ययन सूत्र के २२ वें अध्ययन में भगवान् अरिष्टनेमि का है। उन्होंने अपने विवाह जैसे.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org