Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 361
________________ ३३६ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) @RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR88888888 लिए आदेश है कि वह भिक्षा के लिए जाते समय भी यह ध्यान रखे कि उसके कारण किसी भी प्राणी की वृत्ति में विघ्न न पड़े। भगवान् महावीर स्वामी ने स्वयं इस नियम का पालन किया था। - यदि किसी गृहस्थ के द्वार पर कोई ब्राह्मण, बौद्ध भिक्षु, परिव्राजक, संन्यासी, शूद्र आदि खड़े होते या कुत्ता, बिल्ली आदि खड़े होते तो भगवान् उनको उल्लंघ कर घर में प्रवेश नहीं करते थे क्योंकि इससे उनकी वृत्ति का व्यवच्छेद होता था, उन्हें अन्तराय लगती थी। वह दातार उन ब्राह्मण आदि को भूल कर भगवान् को देने लगता। उनके अंतराय लगने से उनके मन में अनेक संकल्प-विकल्प उठते, द्वेष-भाव पैदा होता। इसलिए भगवान् इन दोषों को टालते हुएं भिक्षा के लिए गृहस्थ के घरों में प्रवेश करते थे। ___इससे स्पष्ट है कि भगवान् सभी प्राणियों के रक्षक थे वे किसी भी प्राणी को पीड़ा नहीं पहुंचाते थे। इसलिए वे उन सभी कार्यों से निवृत्त थे जो सावध थे एवं दूषित वृत्ति से किये जाते थे। भगवान् का आहार' (५२५) अवि सूइयं वा सुक्कं वा, सीयपिंडं पुराणकुम्मासं। अदु बुक्कसं पुलागं वा, लद्धे पिंडे अलद्धए दविए॥ कठिन शब्दार्थ - सूइग्रं - भीजा हुआ - दही आदि से भात को गीला करके बनाया हुआ आई आहार - करबा आदि, सुक्कं - सूखा हुआ - चना आदि का शुष्क आहार, सीयपिंडं - शीत पिण्ड - बासी (ठंडा) आहार, पुराणकुम्मासं - पुराने कुल्माष (कुलत्थी) बहुत दिनों से सिजोया हुआ उड़द, वुक्कसं - जीर्ण (पुराने) धान्य का आहार, पुलागं - जी आदि नीरस धान्य का आहार, पिंडे - आहार के, लद्धे - सरस-स्वादिष्ट आहार के मिलने पर, अलखए - सरस तथा पर्याप्त आहार के-नहीं मिलने पर, दविए - द्रविक - संयम युक्त रह कर, शांत, राग द्वेष रहित। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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