Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 362
________________ नववां अध्ययन - चौथा उद्देशक - भेगवान् की ध्यान साधना ३३७ .000@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ भावार्थ - भीजा हुआ अथवा सूखा हुआ, ठण्डा आहार अथवा बहुत दिन का कुल्माष का आहार, पुराने धान का बना हुआ आहार - अथवा जौ आदि का दलिया इस प्रकार सरस एवं पर्याप्त आहार के मिलने पर या नहीं मिलने पर संयम युक्त भगवान् राग द्वेष नहीं करते थे, सदा शांत रहते थे। विवेचन - भगवान् को जैसा भी रूखा सूखा, सरस-नीरस निर्दोष आहार मिलता वे राग द्वेष रहित होकर उसी में संतोष करते थे। भगवान् की ध्यान साधना - (५२६) अवि झाइ से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं। उद्दमहेयं तिरियं च, पेहमाणे समाहिमपडिण्णे॥ कठिन शब्दार्थ - आसणत्थे - आसनस्थ होकर - उत्कटुक, वीरासन आदि आसनों से बैठ कर, अकुक्कुए - अकोत्कुच - निर्विकार भाव से - मुखादि की चंचलता को छोड़ कर, झाणं - ध्यान, समाहिं - अंतःकरण की शुद्धि को, पेहमाणे - देखते हुए। भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी उकडू, वीरासन आदि आसनों में स्थित होकर, निर्विकार भाव से स्थित चित्त होकर ध्यान करते थे। वे ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक् लोक में स्थित द्रव्यों और उनकी पर्यायों का - लोक के स्वरूप का ध्यान में चिंतन करते थे। वे अपने अंतःकरण की शुद्धि को देखते हुए प्रतिज्ञा रहित होकर आत्म-चिंतन में संलग्न रहते थे। • विवेचन - प्रस्तुत गाथा में भगवान् की ध्यान साधना का वर्णन किया गया है। (५२७) अकसाई विगयगेही य, सहरूवेसु अमुच्छिए झाइ। छउमत्थो वि परक्कममाणो ण पमायं सइंपि कुग्वित्था॥ कठिन शब्दार्थ - अकसाई - अकषायी, विगयगेही - गृद्धि भाव रहित - अनासक्त, सहरूवेसु - शब्द रूप आदि विषयों में, अमुच्छिए - अमूर्च्छित, छउमत्थोवि - छद्मस्थावस्था - ' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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