Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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नववां अध्ययन - चौथा उद्देशक - भगवान् की तपाराधना 8888888888888888888888888888888888888888888888888
कहने का आशय यह है कि इतने लम्बे तप के बाद भी भगवान् का इस तरह रूखा सूखा एवं बासी अन्न (ठण्डा भोजन) ग्रहण करना उनके मनोबल एवं त्याग निष्ठ अनासक्त जीवन का परिचायक है।
... (५१६) छट्टेण एगया भुंजे, अदुवा अट्टमेणं दसमेणं। दुवालसमेणं एगया भुंजे, पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे॥
कठिन शब्दार्थ - छटेण - दो दिन से - बेला करके, अट्ठमेणं - तेला करके - तीन दिन से, दसमेणं - चार दिन से - चौला करके, दुवालसमेणं - पचोला करके - पांच दिन से। .. भावार्थ - भगवान् अपने शरीर की समाधि को देखते हुए भोजन के प्रति प्रतिज्ञा रहित होकर (निदान रहित होकर) कभी बेला करके, कभी तेला करके, कभी चोला करके और कभी पचोला करके पारणा करते थे।
- विवेचन - भगवान् नित्य भोजी नहीं थे किन्तु कभी दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें दिन के अनन्तर आहार करते थे। _प्रस्तुत गाथा में भगवान् के छद्मस्थ अवस्था में किये गए कुछ तपों का वर्णन आया है, उसमें बेले, तेले, चोले, पचोले आदि तप का कथन किया गया है। ग्रंथकार भगवान् के छद्मस्थ अवस्था में किये गए सम्पूर्ण तप का वर्णन बताते हैं। उनमें पारणे के दिन तीन सौ उनपचास (३४६) एवं शेष दिन तपस्या के बताकर सब दिनों का संकलन करके पूर्ण छद्मस्थ काल की गिनती करते हैं। उन तपों के वर्णन में चोले एवं पचोले तप का नाम नहीं आया है जबकि प्रस्तुत मूल पाठ में इनका भी नाम आया है। अतः ग्रंथों में कहे हुए भगवान् के तप के वर्णन को पूर्ण प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता।
(५२०) णच्चाण से महावीरे, णो वि य पावगं सयमकासी। अण्णेहिं वा ण कारित्था, कीरंतंपि णाणुजाणित्था ॥
कठिन शब्दार्थ - णच्चा - जान कर, पावगं - पाप कर्म, अकासी - किया, कारित्थाकरवाया, कीरंतं - करते हुए को, ण अणुजाणित्था - अच्छा भी नहीं जाना।
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