Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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१६.
चौथा अध्ययन - तृतीय उद्देशक - दुःख, आरंभ से 888888888888888888888888888888888888888888888 शब्द के दो अर्थ होते हैं - १. जो देह-शरीर, अर्चा-साज सज्जा, संस्कार-शुश्रूषा के प्रति मृतवत है अर्थात् शरीर संस्कार का त्यागी है, शरीर के प्रति अनासक्त है। . २. जिसकी क्रोध (कषाय) रूप अर्चा मृत - विनष्ट हो गयी है, ऐसा कषाय त्यागीकषाय विजेता, मर्ताच कहलाता है।
इसी प्रकार सम्मत्तदंसिणो शब्द के भी तीन रूप बनते हैं -
१. सम्यक्त्वदर्शिनः - तीर्थंकर देव प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति विचारधारा घटना आदि के तह में पहुँच कर उसकी सम्यक्तता (सच्चाई) को यथावस्थित रूप से जानते देखते हैं अतः वे सम्यक्त्वदर्शी है। .... २. समत्वदर्शितः - तीर्थंकरों की प्राणिमात्र पर समत्वदृष्टि होती है, वे प्राणी मात्र को अपनी आत्मा के समान जानते देखते हैं अतः वे 'समत्वदर्शी' होते हैं।
३. समस्तदर्शिनः - सर्वज्ञ सर्वदर्शी होने के कारण समस्त लोकालोक को जानते देखते हैं अतः समस्तदर्शी हैं।
.. . . (२४५) . ___ ते सव्वे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति, इति कम्मं परिण्णाय सव्वसो। ...' कठिन शब्दार्थ - पावाइया - प्रावादिकाः - यथार्थ प्रवक्ता, दुक्खस्स - दुःख एवं दुःख के कारण, परिणं - परिज्ञा को।
भावार्थ - दुःख एवं दुःख के कारणों को जानने में कुशल वे सब प्रावादिक - यथार्थ प्रवक्ता - सर्वज्ञ कर्मों को सब प्रकार से जान कर उनको त्याग करने का उपदेश करते हैं।
(२४६) इह आणाकंखी पंडिए अणिहे, एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं।
कठिन शब्दार्थ - आणाकंखी - आज्ञाकांक्षी - भगवान् की आज्ञा का अनुसरण करने वाला, अणिहे - स्नेह - राग द्वेष रहित, एगं - एक - अकेला, अप्पाणं - अपनी आत्मा को, संपेहाए - देखता हुआ, धुणे - धुन (प्रकम्पित कर) डाले। . भावार्थ - इस जिनशासन (अर्हत् प्रवचन) में आज्ञा के अनुसार चलने वाला पंडित राग
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