Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) . - *Repsee@@@@@@@@@RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR
भावार्थ - मैं कहता हूं - जैसे कि जल से परिपूर्ण सम भूमिभाग में स्थित रज (कीचड़) से उपशांत (रहित) अनेक जलचर जीवों की रक्षा करता हुआ, स्रोत के मध्य में स्थित तथा सब
ओर से गुप्त (सुरक्षित) कोई एक जलाशय (तालाब) है, ऐसा देखो (समझो)। इसी तरह मनुष्य लोक में जो ज्ञानवान् (आगमज्ञाता) प्रबुद्ध एवं आरम्भ से रहित महर्षि हैं वे उस तालाब के समान हैं। ऐसा देखो (समझो)। वे समाधि मरण रूप काल की आकांक्षा करते हुए संयम मार्ग में भलीभांति प्रयत्न (उद्यम) करते हैं। - ऐसा मैं कहता हूं।
प्रस्तुत सूत्र में हृद (जलाशय) के रूपक द्वारा आचार्य की महिमा का वर्णन किया गया है। चार प्रकार के ह्रद (तालाब) कहे हैं -
१. एक ह्रद (तालाब) ऐसा होता है जिसमें जल निकलता है और बाहर से आता भी है। जैसे - गंगा प्रपात कुण्ड, सीता और सीतोदा नामक नदियों के प्रवाह में स्थित ह्रद के समान।
२. दूसरा तालाब ऐसा है जिसमें से पानी निकलता ही है किंतु आता नहीं है। जैसे - गंगा का उद्गम स्थान, हिमवान् पर्वत पर स्थित पद्म द्रह।
३. तीसरा तालाब वह है जिसमें से पानी निकलता नहीं है किंतु बाहर से पानी आता है। जैसे - लवण समुद्र, कालोदधि समुद्र।
४. चौथा ह्रद वह है जिसमें से न तो पानी निकलता है और न ही बाहर से आता ही है। जैसे - अढ़ाई द्वीप (मनुष्य लोक) के बाहर के समुद्र।।
चार प्रकार के हृद की तरह आचार्य भी चार प्रकार के कहे गये हैं - . १. प्रथम प्रकार के आचार्य वे होते हैं जो शास्त्रज्ञान एवं आचार का उपदेश भी देते हैं और स्वयं भी ग्रहण एवं आचरण करते हैं। जैसे - गणधर देव और उनके पाटानुपाट आचार्य। ____२. दूसरे भेद में जो शास्त्रज्ञान एवं उपदेश देते तो हैं किंतु उन्हें लेने की आवश्यकता नहीं .रहती। जैसे- तीर्थंकर भगवान्।
३. तीसरे प्रकार के आचार्य वे कहलाते हैं जो शास्त्र ज्ञान देते नहीं किंतु शास्त्रीय ज्ञान लेते हैं। जैसे - यथालंदिक आदि विशेष साधना करने वाले साधु ।
४. चौथे भंग में वे आचार्य हैं जो न तो ज्ञान देते हैं और न ही ज्ञान लेते हैं। जैसे - प्रत्येक बुद्ध, स्वयंबुद्ध आदि।
प्रस्तुत सूत्र में प्रथम श्रेणी के आचार्य का ही वर्णन किया है जो ज्ञान का आदान और प्रदान दोनों करते हैं। प्रथम श्रेणी के आचार्य वे होते हैं जो आचार्य के ३६ गुणों, आठ संपदाओं
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