Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र ( प्रथम श्रुतस्कन्ध )
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में धर्म संकटापन्न आपवादिक स्थिति का कथन किया गया है। साधना के मार्ग में अनेक परीषह उत्पन्न होते हैं, उन पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना साधु का परम कर्त्तव्य है। बाईस परीषहों में स्त्री और सत्कार इन दो परीषहों को शीत परीषह और शेष बीस परीषहों को उष्ण परीषह कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में शीत स्पर्श, स्त्री परीषह या कामभोग अर्थ में ही अधिक संगत प्रतीत होता है। जब साधक इन परीषहों को सहन करने में समर्थ नहीं हो, स्त्री आदि के चंगुल से छूटना दुष्कर लगता हो ऐसी धर्म संकटापन्न आपवादिक परिस्थिति में वह गले में फांसी लगा कर, जीभ खींच कर, मकान से कूद कर, झंपापात करके या विष भक्षण आदि करके वैहानस आदि उपायों में से किसी एक उपाय से अपने प्राण त्याग कर दे किंतु चारित्र को दूषित न करे क्योंकि चारित्र को दूषित करने की अपेक्षा मरण ही श्रेयस्कर है।
शंका - वैहानस आदि मरण तो बाल मरण कहा गया है और वर्तमान युग में तो इसे 'आत्महत्या' कहा जाता है फिर यहां साधक को उसकी आज्ञा क्यों दी गई है ?
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समाधान जैन धर्म अनेकांतवादी है। जैन धर्म में (जैनागमों में) आत्महत्या करने का निषेध किया गया है। विष खाकर या फांसी आदि लगा कर मरने वाले को बाल अज्ञानी कहा गया है परंतु विवेक एवं ज्ञान पूर्वक धर्म एवं संयम की सुरक्षा के लिए आत्महत्या करना प नहीं, बल्कि धर्म है। वह मृत्यु आत्मा का विकास करने वाली है। यही कारण है कि आग
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इस आपवादिक मरण को प्रशंसनीय बताते हुए संयम को सुरक्षित रखने के लिए ऐसे मरण से मृत्यु को स्वीकार करने की आज्ञा दी है।
॥ इति आठवें अध्ययन का चौथा उद्देशक समाप्त ॥
पंचमोद्देसो
अहं अज्झयणं
आठवें अध्ययन का पांचवां उद्देशक
चौथे उद्देशक में संयम की रक्षा हेतु वैहानस आदि मरण बताया गया है। अब इस पांचवें उद्देशक में आगमकार भक्तपरिज्ञा रूप पंडित मरण का स्वरूप बताते हैं। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है
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