Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 337
________________ ३१२ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRE88888888888888888 (४७५) भगवं च एवमण्णेसिं, सोवहिए हु लुप्पइ बाले। कम्मं च सव्वसो णच्चा, तं पडियाइक्खे पावगं भगवं॥ कठिन शब्दार्थ - सोवहिए - सोपधिक - उपधि से युक्त, लुप्पइ - क्लेश को प्राप्त होता है, पडियाइक्खे - त्याग कर दिया। भावार्थ - भगवान् ने यह भलीभांति जान लिया कि द्रव्य और भाव उपधि से युक्त अज्ञानी जीव निश्चय ही क्लेश को प्राप्त होता है। अतः कर्म (बंधन) को सब प्रकार से जान कर भगवान् ने कर्म को उत्पन्न करने वाले पाप का प्रत्याख्यान कर दिया था। . . (४७६) दुविहं समिच्च मेहावी, किरियमक्खायमणेलिसं णाणी। आयाण-सोयमइवायसोयं, जोगं च सव्वसो णच्चा॥ कठिन शब्दार्थ - किरियं - क्रिया का, अक्खायं - कथन किया, आयाणसोयं - आदान (दुष्प्रयुक्त इंद्रियों के) स्रोत, अइवायसोयं - अतिपात (हिंसा, मृषावाद आदि के) स्रोत। भावार्थ - मेधावी (सब प्रकार के भावों को जानने वाले) और ज्ञानी (केवलज्ञानी) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दो प्रकार के कर्मों (ईर्याप्रत्यय और साम्परायिक) को भलीभांति जानकर तथा आदान स्रोत, अतिपात स्रोत और योग को सर्व प्रकार से (सम्पूर्ण रूप से) समझ कर अनुपम (दूसरों से विलक्षण) संयम रूप क्रिया का प्रतिपादन किया है। विवेचन - प्रस्तुत गाथा में कर्म बंधन के तीन स्रोतों का कथन किया है - १. आदान स्रोत - दो प्रकार की क्रियाओं से कर्मों का आगमन होता है - १. ईर्याप्रत्ययिक और २. साम्परायिक। अयतनापूर्वक कषाय युक्त प्रमत्त योग से की जाने वाली साम्परायिक क्रिया से कर्मबंध तीव्र होता है, संसार परिभ्रमण बढ़ता है जबकि यतना पूर्वक कषाय रहित होकर अप्रमत्त भाव से की जाने वाली ईर्या प्रत्यय क्रिया से कर्मों का बंध बहुत ही हल्का होता है - संसार परिभ्रमण भी घटता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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