Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 345
________________ ३२० आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 88888@@@@@@@@@@RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRE विविध-उपसर्ग (४६०) सयणेहिं तत्थुवसग्गा, भीमा आसी अणेगरूवा य। संसप्पगा य जे पाणा, अदुवा जे पक्खिणो उवचरंति॥ कठिन शब्दार्थ - सयणेहिं - आवास स्थानों में, भीमा - भयंकर, संसप्पगा - संसर्पक - सरक कर चलने वाले सर्प, नकूल आदि, उवचरंति - उपसर्ग करते हैं। भावार्थ - भगवान् जिन स्थानों में ठहरते थे वहाँ अनेक प्रकार के भयंकर उपसर्ग आते थे। कभी सांप और नेवला आदि प्राणी काट खाते तो कभी गिद्ध आदि पक्षी आकर मांस नोचते थे। (४६१) अदु कुचरा उवचरंति गामरक्खा य सत्तिहत्था य। अदुगामिया उवसग्गा इत्थी एगइया पुरिसो य॥ कठिन शब्दार्थ - कुचरा - चोर और पारदारिक आदि, सत्तिहत्था - हाथ में शस्त्र लिये हुए, गामरक्खा - ग्राम रक्षक, गामिया - ग्राम के। भावार्थ - भगवान् को कभी चोर और पारदारिक आदि और कभी शक्ति और माला आदि शस्त्र हाथ में रखने वाले ग्राम रक्षक (पहरेदार, कोतवाल आदि) उन्हें उपसर्ग देते थे और कभी ग्राम के स्त्री अथवा पुरुष उन्हें कष्ट देते थे। (४६२) इहलोइयाइं परलोइयाई भीमाई अणेगरूवाई। अवि सुब्भिदुब्भिगंधाई सद्दाई अणेगरूवाई ॥ अहियासए सया समिए, फासाइं विरूवरूवाई। अरई रई अभिभूय, रीयइ माहणे अबहुवाई॥ कठिन शब्दार्थ - इहलोइयाई - इहलौकिक (मनुष्य तिर्यंच संबंधी), परलोइयाई - पारलौकिक (देव संबंधी) रीयइ - विचरण करते, अबहुवाई - बहुत नहीं बोलते हुए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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