Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 348
________________ नववां अध्ययन - द्वितीय उद्देशक - विविध उपसर्ग ३२३ 8888@@@@@@@@@RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRE ओढने अथवा आग जलाने की इच्छा भी नहीं करते। कभी रात्रि में भगवान् उस ठहरे हुए स्थान - मंडप से बाहर निकल जाते और वहाँ मुहूर्त भर ठहर कर पुनः मंडप में आ जाते। इस प्रकार भगवान् उसी शीत ऋतु में शीतादि परीषह को समभाव से सहन करते थे। विवेचन - शिशिर ऋतु में साधारण व्यक्ति शीत से कांपने लगते हैं और शीत स्पर्श की पीड़ा बड़ी दुःसह होती है। ऐसा विचार कर अन्यतीर्थिक साधु भी शीत निवारणार्थ कम्बल आदि की याचना करते, हवा रहित स्थान का आश्रय लेते अथवा लकड़ी जला कर शीत की निवृत्ति की इच्छा करते हैं किन्तु भगवान् महावीर स्वामी इन सबकी इच्छा रहित होकर समभाव पूर्वक शीत स्पर्श को सहन करते थे और कभी रात्रि में शीत (सर्दी) प्रगाढ़ हो जाती तब अपने ठहरे हुए स्थान से बाहर निकल कर पुनः अपने स्थान में आकर ध्यानस्थ खड़े हो जाते थे। इस प्रकार भगवान् परीषहों को सम्यक् प्रकार से समभाव पूर्वक सहन करने में समर्थ थे। (४६८) एस विही अणुक्कंतो माहणेण मइमया। बहुसो अपडिण्णेणं, भगवया एवं रीयंति ॥त्ति बेमि। ॥णवमं अज्झयमं बीओद्देसो समत्तो॥ भावार्थ - मतिमान् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने बहुत बार निदान रहित इस विधि का आचरण किया था। इसलिए मोक्षार्थी आत्माओं को इस विधि का आचरण करना चाहिए। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि भगवान् महावीर स्वामी ने प्रस्तुत उद्देशक में वर्णित संयमानुष्ठान का संयमविधि का स्वयं पालन किया है और आत्म-विकास के अभिलाषी इस विधि का आचरण करते हैं अतः अन्य मोक्षार्थी पुरुषों को भी उनका अनुकरण करना चाहिये। . ॥ इति नवम् अध्ययन का द्वितीय उद्देशक समाप्त। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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