Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 346
________________ नववां अध्ययन - द्वितीय उद्देशक - विविध उपसर्ग RRRRRRR88888888888888888888888888888888888888@@ . भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी ने इहलौकिक और पारलौकिक नाना प्रकार के भयंकर उपसर्ग सहन किये। वे अनेक प्रकार के सुगंध और दुर्गन्ध में तथा प्रिय अप्रिय शब्दों में हर्षशोक रहित मध्यस्थ रहते थे। उन्होंने सदा समित (समिति युक्त) होकर अनेक प्रकार के कष्टों को समभाव पूर्वक सहन किया। वे संयम में होने वाली अरति और असंयम में होने वाली रति को हटा कर बहुत कम बोलते हुए संयम में विचरण करते थे। . (४६३) . स जणेहिं तत्थ पुच्छिंसु, एगचरा वि एगया राओ। अव्वाहिए कसाइत्था, पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे॥ कठिन शब्दार्थ - पुच्छिंसु - पूछते थे, एगचरा - अकेले घूमने वाले, अव्वाहिए - कुछ नहीं बोलने पर, कसाइत्था - क्रोधित (रुष्ट) होकर, समाहिं - समाधि में, पेहमाणे - लीन रहते हुए, अपडिण्णे - इच्छा नहीं करते। भावार्थ - जब भगवान् जन शून्य स्थानों में एकाकी होते तब कुछ लोग आकर पूछते - 'तुम कौन हो? यहाँ क्यों खड़े हो?' कभी अकेले घूमने वाले लोग रात में आकर पूछते - 'इस सूने घर में तुम क्या कर रहे हो' तब भगवान् कुछ नहीं बोलते, इससे क्रोधित होकर वे दुर्व्यवहार करते फिर भी भगवान् समाधि में लीन रह कर अपने अपमान का बदला लेने की इच्छा नहीं करते थे। (४६४) अयमंतरंसि को एत्थ, अहमंसि त्ति भिक्खू आहटु। . अयमुत्तमे से धम्मे तुसिणीए कसाइए झाइ॥ कठिन शब्दार्थ - अंतरंसि - इस स्थान के अंदर, तुसिणीए - मौन हो जाते, उत्तमे - उत्तम। भावार्थ - 'यहाँ इस मकान के अन्दर यह कौन है?' ऐसा पूछने पर "मैं भिक्षु हैं। इस प्रकार कह कर भगवान् मौन हो जाते थे। यदि वे भगवान् पर क्रोध करते तो इस परीषह को समभाव पूर्वक सहन करना उत्तम धर्म है, ऐसा जान कर वे भगवान् चुपचाप रह कर शुभ ध्यान में संलग्न रहते थे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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