Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 353
________________ ३२८ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 88888888888888888888888888888888 कुंताइफलेणं - भाले से, लेलुणा - मिट्टी के ढेले से, कवालेणं - ठीकरों से (टूटे हुए घड़े के टुकड़ों से) कंदिसु - कोलाहल करते। ... भावार्थ - उस लाढ देश में भगवान् को बहुत से लोग डण्डे से या मुक्के से अथवा भाले आदि से अथवा मिट्टी के ढेले से या ठीकरे से मारते थे फिर 'मारो मारो' कह कर होहल्ला मचाते थे। (५०६) मंसाई छिण्णपुव्वाइं, उटुंभिया एगया कायं। परीसहाई लुंचिंसु, अदुवा पंसुणा अवकरिंसु॥ कठिन शब्दार्थ - मंसाई - मांस, छिण्णपुव्वाई - काट लेते थे, उटुंभिया - पकड़ कर, पंसुणा - धूल, अवकरिंसु - फेंकते थे, उछालते थे। भावार्थ - वे अनार्य लोग कभी-कभी भगवान् का मांस काट लेते थे और कभी-कभी उनके शरीर को पकड़ कर धक्का देते थे और कभी-कभी उन्हें पीटते थे अथवा उनके ऊपर धूल उछालते थे। इस प्रकार वे लोग अनेक परीषह. देते थे किन्तु भगवान् उन सब को समभाव पूर्वक सहन करते थे। (५१०) उच्चालइय णिहणिंसु, अदुवा आसणाओ खलइंसु। वोसट्टकाए पणयासी, दुक्खसहे भगवं अपडिण्णे॥ कठिन शब्दार्थ - उच्चालइय - ऊपर उठा कर, णिहणिंसु - नीचे गिरा देते थे, आसणाओ - आसन से, खलइंसु - धक्का दे कर दूर धकेल देते थे, पणया - प्रणत - परीषह सहन करने में तत्पर।। _ भावार्थ - वे अनार्य लोग ध्यानस्थ भगवान् को ऊंचा उठा कर नीचे गिरा देते थे। अथवा धक्का मार कर आसन से दूर धकेल देते थे किन्तु भगवान् शरीर ममत्व का त्याग किये हुए परीषह सहन करने में तत्पर थे। भगवान् उन समस्त कष्टों को सहते थे और उनकी निवृत्ति (दुःख प्रतिकार) के लिए प्रतिज्ञा रहित थे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366