Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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नववां अध्ययन - द्वितीय उद्देशक - निद्रा त्याग
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भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी तेरह वर्ष से कुछ कम समय (१२ वर्ष ६ महीने पन्द्रह दिन) तक तप साधना करते हुए रात दिन यतना पूर्वक अप्रमत्त होकर समाधि पूर्वक धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान ध्याते थे।
निद्रा त्याग
(४८८) णिइंपि णो पगामाए, सेवइ भगवं उट्ठाए। जग्गावई य अप्पाणं, ईसिं साई य अपडिण्णे॥
कठिन शब्दार्थ-पगामाए - प्रकामतः - इच्छा पूर्वक, जग्गावई - जागृत रखते, ईसिंथोड़ी-सी, साई - निद्रा।
भावार्थ - भगवान् निद्रा का सेवन भी नहीं करते थे। यदि कभी थोड़ी-सी भी निद्रा उन्हें सताती तो वे उठकर अपनी आत्मा को पूर्णतया सदा जागृत रखते थे अर्थात् उत्तम अनुष्ठान में तल्लीन रखते थे किन्तु सोने की कभी भी इच्छा तक नहीं करते थे।
. . . (४८६) संबुज्झमाणे पुणरवि, आसिंसु भगवं उठाए। णिक्खम्म एगया राओ, बहिं चंकमिया मुहुत्तागं॥ कठिन शब्दार्थ - णिक्खम्म - निकल कर, चंकमिया - चंक्रमण - घूम कर। .
भावार्थ - निद्रा रूप प्रमाद को संसार का कारण जान कर भगवान् सदा अप्रमत्त भाव से संयम साधना में संलग्न रहते थे। यदि कभी शीतकाल की रात्रि में निद्रा आने लगती तो मुहूर्त भर बाहर चंक्रमण कर घूम कर पुनः ध्यान एवं आत्म चिंतन में संलग्न हो जाते थे। । - विवेचन - भगवान् महावीर स्वामी ने छद्मस्थ अवस्था में कभी भी आभोग पूर्वक निद्रा प्रमाद का सेवन नहीं किया। फिर भी कठिन आसनों के करते हुए भी कभी-कभी थोड़ी-थोड़ीसी निद्रा (आधा मिनट-एक मिनट आदि) आ जाती थी। भगवान् तो निद्रा न आवे, इसके प्रति पूर्ण जागरूक रहते थे। इस प्रकार निद्रा का थोड़ा-थोड़ा काल मिलाकर भगवान् के छद्यस्थ काल में एक मुहूर्त जितना निद्रा का काल हुआ। ऐसा ग्रंथकार बताते हैं।
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