Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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नववां अध्ययन - प्रथम उद्देशक - निर्दोष आहार चर्या
३१५ 888@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ @@ भोजन संबंधी प्रतिज्ञा भी नहीं करते थे। वे मुनीन्द्र भगवान् महावीर स्वामी आंख में रज कण आदि गिर जाने पर भी उसका प्रमार्जन नहीं करते और न ही शरीर को खुजलाते थे। - विवेचन - भगवान् मात्रज्ञ थे। वे मात्रा के अनुसार ही आहार पानी का ग्रहण करते थे। वे रसों में मूर्छा रहित थे। 'आज मैं सिंह केशरिया मोदक आदि मिष्टान्न ही लूंगा' ऐसी प्रतिज्ञा नहीं करते थे किन्तु नीरस कुल्माष - कुलथी आदि के लिए तो अभिग्रह करते ही थे। भगवान् ने न तो कभी धूलिकण आदि को निकालने के लिए नेत्र को परिमार्जित किया और न काष्ठ आदि के द्वारा अपने अंगों में खाज ही की थी।
(४८१) अप्पं तिरियं पेहाए, अप्पं पिट्ठओ व पेहाए। अप्पं बुइएऽपडिभाणी, पंथपेही चरे जयमाणे।
कठिन शब्दार्थ - पेहाए - देखते हुए, बुइए - मौन, पंथपेही - मार्ग को देखते हुए, अपडिभाणी - नहीं बोलते थे।
भावार्थ - भगवान् मार्ग में चलते हुए न तिरछे (दाएं बाएं) देखते थे और न पीछे देखते थे। वे यतना पूर्वक मार्ग को देखते हुए चलते थे। किसी के कुछ पूछने पर भी वे नहीं बोलते . थे किन्तु मौन रहते थे।
(४८२) सिसिरंसि अद्धपडिवण्णे, तं वोसज वत्थमणगारे।
पसारितु बाहं परक्कमे, णो अवलंबियाण खंधंसि॥ ... कठिन शब्दार्थ - सिसिरंसि - शिशिर ऋतु के, अनुपडिवण्णे - मार्ग में प्रतिपन्न हुए, पसारितु - फैला कर, बाई - भुजाओं को, परक्कमे - चलते थे, अवलंबियाण - सहारा लेकर, खंसि - कन्धों का। - भावार्थ - शिशिर ऋतु (शीतकाल) में मार्ग में चलते हुए भगवान् महावीर स्वामी उस देवदूष्य वस्त्र को भी मन से त्याग कर भुजाओं को फैला कर चलते थे किन्तु शीत से पीड़ित होकर भुजाओं को संकुचित कर तथा कंधों का अवलंबन लेकर नहीं चलते थे।
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