Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 319
________________ २६४ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 带脚脚部独來來來來來來串聯串聯串聯串串串串串串串串串串串串串 (४४२) जं किंचुवक्कम जाणे, आउक्खेमस्स अप्पणो। तस्सेव अंतरद्धाए , खिप्पं सिक्खेज पंडिए। कठिन शब्दार्थ - किंचुवक्कम - किंचित् मात्र उपाय, आउक्खेमस्स - आयु के क्षेम (जीवन यापन) का, अंतरद्धाए - मध्य में, सिक्खेज - स्वीकार करे। ____भावार्थ - यदि साधु (स्वात्मा) अपनी आयु को क्षेम-समाधि पूर्वक बीताने का किंचित् भी उपाय जानता हो तो वह उस उपाय को संलेखना के मध्य में ही ग्रहण कर ले। यदि कभी अकस्मात् रोग का आक्रमण हो जाए तो वह शीघ्र ही भक्त प्रत्याख्यान आदि संलेखना को स्वीकार कर पंडित मरण को प्राप्त करे। (४४३) गामे वा अदुवा रण्णे, थंडिलं पडिलेहिया। अप्पपाणं तु विण्णाय, तणाई संथरे मुणी॥ भावार्थ - मुनि ग्राम अथवा जंगल में स्थंडिल भूमि का प्रतिलेखन प्रमार्जन कर, उसे जीव जंतु रहित जान कर उसके ऊपर तृणों को बिछावे। (४४४) अणाहारो तुयट्टेजा, पुट्ठो तत्थऽहियासए। णाइवेलं उवचरे, माणुस्सेहिं विपुट्ठवं॥ · कठिन शब्दार्थ - तुयट्टेजा - सो जाए, ण अइवेलं उवचरे - मर्यादा का उल्लंघन न करे, विपुट्ठवं - परीषहों से आक्रान्त होने पर। - भावार्थ - त्रिविध या चतुर्विध आहार का त्याग करके साधु उस घास के बिछौने पर सो जाय। परीषह उपसर्गों से स्पृष्ट होने पर उन्हें समभाव से सहन करे तथा मनुष्य कृत अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गों के प्राप्त होने पर भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन न करे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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