Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आठवां उद्देशक - इंगित मरण का स्वरूप
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कठिन शब्दार्थ - भेउरेसु - विनाशी, ण रज्जेज्जा अनुरक्त न हो, बहुयरेसु प्रभूततर - बहुत अधिक मात्रा में, इच्छा लोभं इच्छा लोलुपता का, धुववण्णं - ध्रुव वर्ण - शाश्वत मोक्ष या निश्चल संयम के स्वरूप का, संपेहिया - सम्यक् विचार कर ।
आठवां अध्ययन
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भावार्थ विनाशशील कामभोग चाहे बहुत अधिक मात्रा में प्राप्त हो रहे हों उनमें
अनुरक्त न होवें । शाश्वत मोक्ष या निश्चल संयमं के स्वरूप का सम्यक् विचार इच्छा लोलुपता ( काम की इच्छा और लोभ) का सेवन न करे ।
विवेचन - यदि कोई राजा एवं चक्रवर्ती उस साधु को अत्यधिक मात्रा में कामभोगों का आमंत्रण करे अथवा राजकन्या देने का प्रलोभन भी दे तो साधु कामभोगों को विनश्वर समझ उसकी इच्छा न करे। इसी प्रकार इहलौकिक और पारलौकिक निदान भी न करे किन्तु एक मात्र मोक्ष लक्ष्य से निर्जरा की इच्छा रखता हुआ अपने चित्त को समाधिस्थ रखे ।
(४६०)
सासएहिं णिमंतेज्जा, दिव्वमायं ण सद्दहे |
तं पडिबुज्झ माहणे, सव्वं णूमं विहूणिया ॥
कठिन शब्दार्थ - सासएहिं - शाश्वत यानी जीवन पर्यंत नष्ट न होने वाली संपत्ति देने के लिए, दिव्वमायं देव माया पर भी, ण सद्दहे
श्रद्धा न करे, णूमं
माया को,
विहूणिया जान कर त्याग दे ।
भावार्थ - यदि कोई शाश्वत यानी आयु पर्यन्त रहने वाली संपत्ति देने के लिए निमंत्रित करे तो वह उसे मायाजाल समझे । इसी प्रकार देवी माया पर भी विश्वास न करे । साधु इस प्रकार समस्त माया को भलीभांति जान कर उसका त्याग करे और समाधिस्थ रहे।
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विवेचन - जो धन जीवन पर्यंत दान और भोग करने से नष्ट न हो ऐसे शाश्वत धन से यदि कोई उस साधु को आमंत्रित करे अथवा कोई देव उस साधु के पास आकर नाना प्रकार की ऋद्धि देने लगे तो भी साधु उनमें आसक्त न बने। इसी प्रकार कोई देवांगना मुनि की प्रार्थना करे तो मुनि उसे स्वीकार न करे किन्तु वह अनशन धारी साधु इन सब का मायाजाल समझ इनसे दूर रहता हुआ समाधि भाव में स्थित रहे।
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