Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध)
(४५६) अयं से उत्तमे धम्मे, पुव्वट्ठाणस्स पग्गहे। अचिरं पडिलेहित्ता, विहरे चिट्ठ माहणे।
कठिन शब्दार्थ - पुव्वट्ठाणस्स - पूर्व स्थान द्वय - भक्त प्रत्याख्यान और इंगित मरण से, पग्गहे - प्रकृष्टतर - अधिक कष्ट साध्य, अचिरं - जीव रहित स्थंडिल स्थान का, विहरे - विचरे, चिट्ठ - स्थित होकर रहे।
भावार्थ - यह पादपोपगमन अनशन उत्तम धर्म है। यह भक्त प्रत्याख्यान और इंगित मरण से प्रकृष्टतर-अधिक कष्ट साध्य है। पादपोपगमन अनशन धारक माहन (साधु) जीव जंतु रहित स्थंडिल स्थान की प्रतिलेखना कर विधिपूर्वक पालन करते हुए वहाँ अचेतनवत् स्थित रहे।
(४५७) अचित्तं तु समासज, ठावए तत्थ अप्पगं। वोसिरे सव्वसो कार्य, ण मे देहे परीसहा॥
भावार्थ - पादपोपगमन मरणार्थी साधक अचित्त - जीव रहित स्थान को प्राप्त करके वहाँ अपने आपको स्थापित कर दे। शरीर का सब प्रकार से त्याग कर दे और परीषह आने पर यह समझे कि - 'यह शरीर ही मेरा नहीं है तो परीषह जनित कष्ट मुझे कैसे होंगे?' .
(४५८) जावजीवं परीसहा, उवसग्गा य संखाय। संवुडे देहभेयाए इय पण्णेऽहियासए॥
भावार्थ - यावजीवन अर्थात् जब तक यह जीवन है तब तक परीषह और उपसर्ग हैं ऐसा जान कर शरीर का भेद होने तक संयमी बुद्धिमान् साधु उन्हें समभाव पूर्वक सहन करे।
(४५६) भेउरेसु ण रज्जेजा, कामेसु बहुयरेसु वि। इच्छा लोभं ण सेवेजा, धुववण्णं संपेहिया॥
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