Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 327
________________ ३०२. आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 參參參參參參參參參參參參參事业单单单单单单单单单单单单单座 8@@ (४६१) सव्वटेहिं अमुच्छिए, आउकालस्स पारए। तितिक्खं परमं णच्चा, विमोहण्णयरं हियं ॥त्ति बेमि॥ ॥ अलु अज्झयणं अट्ठमोइसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ - सव्वडेहिं - सब अर्थों में अर्थात् पांच प्रकार के विषयों तथा उनके साधन भूत द्रव्यों में, अमुच्छिए - अमूर्च्छित - मूर्छित न होता हुआ, आउकालस्सं - मृत्युकाल (आयुष्य) का, पारए - पारंगत - पारगामी, तितिक्खं - तितिक्षा - परीषह उपसर्गों को सहन करना, विमोहण्णयरं - विमोहान्यतर - मोह रहित भक्त परिज्ञा, इंगित मरण और पादपोपगमन इन तीनों में से किसी एक को स्वीकार करे, हियं - हितकारी। भावार्थ - सभी विषयों में मूर्च्छित न होता हुआ साधु आयुष्य के समय को पार करे, जीवन पर्यन्त विषयों से निवृत्त रहे। तितिक्षा को (परीषह उपसर्ग को सहन करना) सर्व श्रेष्ठ जान कर मोक्ष रहित होकर हितकारी तीन अनशनों में से किसी एक अनशन को स्वीकार करे। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - भक्त परिज्ञा, इंगित मरण और पादपोपगमन इन तीनों ही मरणों में परीषह उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करना प्रधान अंग है। अतः द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार साधक तीनों में से किसी एक मरण को अवश्य स्वीकार करे, क्योंकि तीनों ही मरण प्रभु ने हितकारी बताये हैं। अपनी शक्ति अनुसार किसी एक का आश्रय लेना मोक्षार्थी का कर्तव्य है। इस प्रकार श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं। ॥ इति आठवें अध्ययन का आठवां उद्देशक समाप्त॥ . ॥ आठवां अध्ययन समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366