Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आठवां अध्ययन - आठवां उद्देशक - भक्त प्रत्याख्यान का स्वरूप
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(४४५) संसप्पगा य जे पाणा, जे य उद्दमहेचरा। भुंजंति मंससोणियं, ण छणे ण पमज्जए॥
कठिन शब्दार्थ - संसप्पगा - संसर्पक - भूमि पर चलने वाले चींटी, श्रृगाल आदि, उड्डमहेचरा - ऊंचे आकाश में उड़ने वाले गीध आदि और नीचे बिलों में रहने वाले सर्पादि, मंस सोणियं - मांस और रक्त को, छणे - मारे, पमजए - प्रमार्जन करे।
भावार्थ - जो भूमि पर चलने वाले चींटी श्रृगाल आदि प्राणी हैं अथवा जो ऊपर आकाश में उड़ने वाले गिद्ध आदि तथा नीचे बिलों में रहने वाले सर्प आदि प्राणी हैं यदि वे कदाचित् अनशन धारी मुनि के शरीर का मांस नोचें और रक्त पीए तो मुनि न तो उन्हें मारे और न ही रजोहरण आदि से प्रमार्जन करे, उन्हें हटाएं।
(४४६) पाणा देहं विहिंसंति, ठाणाओ ण वि उन्भमे। आसवेहिं विवित्तेहिं, तिप्पमाणोऽहियासए॥
कठिन शब्दार्थ - उन्भमे - हटे, अन्यत्र जावे, आसवेहिं - आस्रवों को, विवित्तेहिं - रहित होने के कारण, तिप्पमाणो - तृप्ति का अनुभव करता हुआ। .. भावार्थ - वह साधु ऐसा चिंतन करे कि ये हिंसक प्राणी मेरे शरीर का नाश कर रहे हैं मेरे ज्ञानादि आत्म-गुणों का नहीं, ऐसा विचार कर उन्हें हटाए नहीं और न ही उस स्थान से उठ कर अन्यत्र जाए। हिंसादि आस्रवों से रहित हो जाने के कारण आत्मिक सुख से तृप्त वह मुनि उन कष्टों को समभाव से सहन करे।
(४४७) गंथेहिं विवित्तेहिं, आउकालस्स पारए। पग्गहियतरगं चेयं, दवियस्स वियाणओ॥
कठिन शब्दार्थ - पग्गहियतरगं - प्रगृहीततरकं - पूर्वगृहीत से विशिष्टतर, दवियस्स - संयमशील को।
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