Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 322
________________ आठवां अध्ययन - आठवां उद्देशक - इंगित भरण का स्वरूप 888888888888888888888888888888888888888 २६७ (४४६) हरिएसु ण णिवजेजा, थंडिलं मुणिआ सए। विउस्सिज अणाहारो, पुट्ठो तत्थऽहियासए। कठिन शब्दार्थ - णिवजेजा - शयन करे, हरिएसु - हरितकाय वनस्पति के ऊपर। भावार्थ - इंगित मरणार्थी साधु हरियाली पर शयन नहीं करे। निर्जीव स्थण्डिल देख कर वहाँ सोए। बाह्य और आभ्यंतर दोनों प्रकार की उपधियों का त्याग कर निराहार रहता हुआ मुनि परीषह उपसर्गों को समभाव से सहन करे। . (४५०) इंदिएहिं गिलायंतो, समियं आहरे * मुणी। तहावि से अगरिहे, अचले जे समाहिए। कठिन शब्दार्थ - इंदिएहिं - इन्द्रियों से, गिलायंतो - ग्लान (क्षीण) होने पर, समियंसमभाव को, आहरे - धारण करे, अचले - अचल-अटल, अगरिहे - अगर्हित-निंदनीय नहीं। भावार्थ - आहार नहीं करने के कारण इन्द्रियों से ग्लान होने पर मुनि समता धारण करे। जो अपनी प्रतिज्ञा पर अचल-अटल है तथा धर्मध्यान शुक्लध्यान में अपने मन को लगाए हुए है वह मर्यादित भूमि में शरीर चेष्टा करता हुआ भी निंदा का पात्र नहीं होता है। विवेचन - इंगित मरण करने वाला साधु नियमित प्रदेश में गमनागमन तथा शरीर के अओं का संकोच विस्तार कर सकता है। ऐसा करने पर भी कोई दोष नहीं है किन्तु यह कोई नियम नहीं है कि उसे गमनागमनादि क्रियाएं करनी ही चाहिए किन्तु यदि उसकी शक्ति वैसी हो तो वह सूखे काष्ठ की तरह निश्चेष्ट स्थित रह सकता है। (४५१) अभिक्कमे पडिक्कमे, संकुचए पसारए। काय साहारणट्ठाए, इत्थं वा वि अचेयणे॥ * पाठान्तर - साहरे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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