Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२६२
a 8 8 8
(४३६)
दुविहंपि विइत्ताणं, बुद्धा धम्मस्स पारंगा ।
अणुपुव्वीए संखाए, आरंभाओ तिउट्टई ॥
कठिन शब्दार्थ - विइत्ताणं - जान कर एवं त्याग कर, पारगा- पारगामी, संखाए जानकर, निश्चय कर, तिउट्टइ - मुक्त हो जाता है ।
भावार्थ श्रुत और चारित्र धर्म के पारगामी, तत्त्वज्ञ पुरुष दोनों प्रकार के अर्थात् बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह को जानकर एवं त्याग कर अनुक्रम से संयम की क्रियाओं का पालन कर मृत्यु के अवसर को जान कर यथायोग्य मरण का निश्चय करके आरम्भ से मुक्त हो जाते हैं।
विवेचन - बुद्धिमान् संयमी पुरुष तीन मरणों में से 'मैं किस मरण के योग्य हूँ' यह निश्चय करके उसी मरण द्वारा समाधि पूर्वक शरीर का त्याग कर आरम्भ से छूट जाते हैं अथवा कर्मों से मुक्त हो जाते हैं ।
किसी किसी प्रति में चतुर्थ पद में 'कम्मुणाओ तिउट्टई' पाठ भी मिलता है जिसका अर्थ ‘आठ कर्मों से पृथक् हो जाता है । '
भक्त प्रत्याख्यान का स्वरूप
(४४० ) :
कसाए पयणुए किच्चा, अप्पाहारो तितिक्खए ।
अह भिक्खू गिलाइज्जा, आहारस्सेव अंतियं ॥
कठिन शब्दार्थ - अप्पाहारो - अल्पाहारी, गिलाइज्जा - ग्लानि को प्राप्त होता है, आहारस्सेव - आहार के, अंतियं - पास न जावे, इच्छा न करे ।
भावार्थ वह साधु कषायों को कृश (पतला ) करके, अल्प आहार करता हुआ परीषहों एवं कठोर वचनों से सहन करे। यदि ऐसा करता हुआ साधु आहार के बिना ग्लानि को प्राप्त होता है तो वह आहार के पास ही न जावे अर्थात् आहार की इच्छा न करे, आहार सेवन न करे । विवेचन - संलेखना करने वाला साधक पहले कषायों को पतला करे। कषायों को अल्प करता हुआ साधु आहार की मात्रा को भी घटाता जाय और बहुत थोड़ा भोजन करे। ऐसा करते
-
· आचारांग सूत्र ( प्रथम श्रुतस्कन्ध )
Jain Education International
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org