Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आठवां अध्ययन सातवां उद्देश
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आहार पडिमा
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४. जिस साधु का ऐसा अभिग्रह होता है कि मैं दूसरे साधर्मिक साधुओं के लिए अशन, पान, खादिम, स्वादिम लाकर नहीं दूँगा और न ही उनके द्वारा लाये गये अशनादि को भोगूंगा ।
किसी किसी साधु का ऐसा अभिग्रह होता है कि मैं अपनी आवश्यकता से अधिक अपनी कल्पमर्यादानुसार एषणीय और ग्रहणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम के द्वारा निर्जरा के उद्देश्य से उपकार के लिए अपने साधर्मिक साधु की वैयावच्च करूँगा ।
अथवा मैं अपनी आवश्यकता से अधिक, अपनी कल्पमर्यादानुसार एषणीय, ग्रहणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम द्वारा निर्जरा की भावना से साधर्मिक साधुओं द्वारा की जाने वाली वैयावच्च ं को स्वीकार करूँगा । इस प्रकार वह साधु लाघव का विचार करता हुआ यावत् समभाव को धारण करे ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अभिग्रहनिष्ठ मुनि द्वारा अपनी रुचि और योग्यतानुसार ली जाने वाली प्रतिज्ञाओं का वर्णन किया गया है। उपर्युक्त चार भंग कर्म निर्जरा की दृष्टि से बताए गये हैं।
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जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ से गिलामि च खलु अहं इमम्मि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेणं परिवहित्तए, से अणुपुव्वेणं आहारं संवट्टेज्जा, संवट्टइत्ता कसाए पयणुए किच्चा समाहियच्चे फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू अभिणिव्वुडच्चे, अणुपविसित्ता गामं वा णयरं वा जाव रायहाणिं वा तणाई जाएज्जा, से तमाया एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमेत्ता अप्पंडे जाव तणाई संथरेज्जा, इत्थवि समए कायं च, जोगं च, इरियं च, पच्चक्खाएजा ।
कठिन शब्दार्थ - इरियं - ईर्या का, पच्चक्खाएजा
पच्चक्खाण करे |
भावार्थ - जिस साधु के मन में यह विचार होता है कि मैं वास्तव में इस समय आवश्यक संयम क्रिया करने के लिए इस शरीर को क्रमशः वहन करने में ग्लान असमर्थ हो रहा हूँ। वह साधु क्रमशः आहार का संक्षेप करे। आहार को संक्षेप करता हुआ कषायों को पतला (कृश) करे । इस प्रकार समाधि पूर्ण लेश्या वाला तथा फलक की तरह शरीर और कषाय दोनों से कृश बना हुआ वह साधु समाधि मरण के लिए उत्थित होकर शरीर के संताप को दूर कर दे। इस प्रकार संलेखना करने वाला वह साधु ग्राम अथवा नगर यावत् राजधानी में प्रवेश करके तृणों की याचना करे । तृणों की याचना करके उन्हें लेकर एकान्त में चला जाए, एकान्त में जाकर अंडे आदि से
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