Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRC
दोष युक्त आहार अग्राह्य
(४२६) जस्सणं भिक्खुस्स एवं भवइ, पुट्ठो अबलो अहमंसि, णालमहमंसि गिहतरसंकमणं भिक्खायरियं गमणाए, से एवं वयंतस्स परो अभिहडं असणं वा ४ आहटु दलएज्जा से पुव्वामेव आलोएजा आउसंतो गाहावई! णो खलु मे कप्पड़ अभिहडं असणं वा ४ भोत्तए वा, पायए वा, अण्णे वा एयप्पगारे। ...
कठिन शब्दार्थ - अबलो - निर्बल-दुर्बल, गिहतरसंकमणं - एक घर से दूसरे घर जाने में, ण अलं - समर्थ नहीं हूं, अभिहडं - अभ्याहृत - जीवों के आरंभ से बना कर घर से सामने लाये हुए, दलइजा - देने लगे, पुवामेव - पहले ही, आलोएजा - विचार कर निषेध कर दे, भोत्तए - खाना, पायए - पीना, एयप्पगारे - इसी प्रकार।
' भावार्थ - जिस साधु को ऐसा प्रतीत हो कि मैं रोगादि से आक्रान्त होने के कारण दुर्बल हो गया हूं। अतः मैं भिक्षाचरी के लिये एक घर से दूसरे घर जाने में समर्थ नहीं हूं। उसे इस प्रकार कहते हुए सुन कर कोई गाथापति (गृहस्थ) अपने घर से जीवों का आरंभ करके अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कर सामने लाकर देने लगे तो वह साधु पहले से ही विचार कर निषेध कर दे कि हे आयुष्मन् गाथापति! मुझे यह सामने लाया हुआ अशन, पान, खादिम, सादिम खाना पीना नहीं कल्पता है। इसी प्रकार दूसरे दोषों से दूषित आहारादि भी मेरे लिए सेवनीय नहीं है।
‘विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट किया गया है कि दुर्बल होने पर भी साधु अभिहत आदि .दोष युक्त आहार पानी ग्रहण न करे।
ग्लान-वैयावृत्य
(४२७) _. जस्स णं भिक्खुस्स अयं पगप्पे, अहं च खलु पडिण्णत्तो अपडिण्णत्तेहिं गिलाणो अगिलाणेहिं अभिकंख साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं साइजिस्सामि।
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