Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 278
________________ आठवां अध्ययन - प्रथम उद्देशक २५३ 88888888888888888888 888888888888888888 आचार - तीनों से असमान - को, णो पाएजा - न देवे, णो णिमंतिजा - निमंत्रित न करे, णो कुज्जा वेयावडियं - वैयावृत्य न करे, आढायमाणे - आदरवान् होकर, परं - अतिशय। ____ भावार्थ - मैं कहता हूँ - अतिशय आदरवान् हो कर समनोज्ञ को - जो दर्शन (श्रद्धा) और लिंग (वेश) से समान है किन्तु आचार से असमान है उसको तथा असमनोज्ञ (दर्शन, वेश और आचार से असमान) साधक को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल अथवा पादपोंछन (रजोहरण आदि या पैर पोंछने का कपड़ा) न देवे, न देने के लिए निमंत्रित करे और न उनकी वैयावृत्य - सेवा करे। विवेचन - उपर्युक्त सूत्र में आये हुए “परं आढायमाणे" का आशय यह है कि आदर एवं बहुमान से करने पर ही वैयावृत्य का लाभ मिलता है। अन्यथा अनादर भाव से करने पर तो मजदूरी या बेगारी जैसा होता है। अतः अनादर भाव से करने की हाँ नहीं की है। परन्तु आदर - बहुमान से करने को ही वैयावृत्य माना है। (३६५) धुवं चेयं जाणेज्जा असणं वा जाव पायपुंछणं वा, लभिया णो लभिया, भुंजिया णो भुंजिया पंथं विउत्ता विउकम्म विभत्तं धम्मं जोसेमाणे समेमाणे चलेमाणे पाएजा वा णिमंतेजा वा कुज्जा वेयावडियं परं अणाढायमाणे त्ति बेमि। ____ कठिन शब्दार्थ - धुवं - ध्रुव-निश्चित, लभिया - प्राप्त करके, भुंजिया - खा कर, पंथं - मार्ग को, विउत्ता - अपक्रम - बदल कर, विउक्कम्म - व्युत्क्रम - उल्लंघन कर। भावार्थ - इसे तुम ध्रुव यानी निश्चित जानो - अशन यावत् पादपोंछन को प्राप्त करके अथवा प्राप्त न कर, भोजन करके अथवा न करके, मार्ग को बदल कर या उल्लंघन करके मेरे स्थान पर आया करें। भिन्न धर्म का सेवन करता हुआ असमनोज्ञ - बौद्ध भिक्षु आदि आता हुआ या जाता हुआ यदि कदाचित् ऐसा कहे अथवा आहार. आदि दे या आहार आदि देने के लिए निमंत्रण दे अथवा अत्यंत आदर के साथ वैयावृत्य करे तो साधु उसे स्वीकार न करे, उसकी बात की उपेक्षा कर दे। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट किया गया है कि प्रायः सम आचार वाले के साथ सांभोगिक व्यवहार संबंध रखा जाता है, विषम आचार वाले के साथ नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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