Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२६५
आठवां अध्ययन - तृतीय उद्देशक - मध्यम अवस्था 888888888888888888888888
अहं अज्झयणं तइओ उद्देसो
आठवें अध्ययन का तृतीय उद्देशक दूसरे उद्देशक में अकल्पनीय आहार आदि को ग्रहण करने का निषेध किया गया है। उस अकल्पनीय आहार आदि को देने वाले दाता के प्रति शुद्ध दान देने की शिक्षा देकर उसके संशय को दूर करना गीतार्थ साधु का कर्तव्य है। यह इस तीसरे उद्देशक में बताया जाता है। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
मध्यम अवस्था
- (४१२) - मज्झिमेणं वयसावि एगे संबुज्झमाणा समुट्ठिया।
कठिन शब्दार्थ - मज्झिमेणं - मध्यम, वयसावि - वय - अवस्था में भी, संबुज्झमाणा- बोध को प्राप्त कर, समुट्ठिया - उद्यत होते हैं। . भावार्थ - कुछ व्यक्ति मध्यम अवस्था में भी बोध प्राप्त करके धर्माचरण करने के लिए (मुनिधर्म में दीक्षित होने के लिए) उद्यत होते हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में मुनिधर्म के आचरण के लिए मध्यम वय का उल्लेख किया गया है। क्योंकि इस वय में बुद्धि परिपक्व हो जाती है, भुक्त भोगी मनुष्य का भोग संबंधी आकर्षण कम हो जाता है अतः उसका वैराग्य रंग पक्का हो जाता है। साथ ही वह स्वस्थ एवं सशक्त होने के कारण परीषहों और उपसर्गों का सहन, संयम के कष्ट, तपस्या की कठोरता आदि धर्मों का पालन भी सुखपूर्वक कर सकता है। उसका शास्त्रीय ज्ञान भी अनुभव से समृद्ध हो जाता है। अतः मुनि-दीक्षा के लिए मध्यम अवस्था सर्वमान्य मानी जाती है। इसका आशय यह नहीं समझना कि बाल्यावस्था और वृद्धावस्था में दीक्षा अंगीकार नहीं की जा सकती है। दीक्षा तो तीनों अवस्थाओं में ली जा सकती है किंतु बाल्यावस्था एवं वृद्धावस्था मुनिधर्म के निर्विघ्न पालन के इतनी उपयुक्त नहीं होती जितनी मध्यम अवस्था होती है।
(४१३) सोच्चा मेहावी वयणं पंडियाणं णिसामित्ता।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org