Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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छठा अध्ययन - तृतीय उद्देशक - द्रव्य और भाव लाघवता 密密密密密參參參參參參參參參事來參參參參參參參參參參參參參參嘟嘟嘟嘟嘟嘟嘟***串串 फिर उस वस्त्र को सांधूंगा, उसे सीऊंगा, छोटा है इसलिए टुकड़ा जोड़कर बड़ा बनाऊँगा, बड़ा है अतः फाड़ कर छोटा बनाऊंगा, फिर उसे पहनूंगा और शरीर को ढडूंगा।
द्रव्य और भाव लाघवता
(३६१) अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सीयफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दंसमसगफासा फुसंति, एगयरे अण्णयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अचेले, लाघवं आगममाणे, तवे से अभिसमण्णागए भवइ। - कठिन शब्दार्थ - तणफासा - तृण स्पर्श का, सीयफासा - शीत स्पर्श का, तेउफासागर्मी के स्पर्श का, दंसमसगफासा - डांस तथा मच्छरों का स्पर्श, अहियासेइ - सहन करता है, लाघवं - लाघव - लघुभाव को, आगममाणे - जानता हुआ, अभिसमण्णागए - अभिसमन्वागत - युक्त।
भावार्थ - अथवा अचेलत्व साधना में पराक्रम करते हुए मुनि को बारबार तिनकों का स्पर्श, सर्दी और गर्मी का स्पर्श तथा डांस और मच्छरों का स्पर्श पीड़ित करता है। अचेलक मुनि उनमें से एक या दूसरे, नाना प्रकार के परीषहों (स्पर्शों) को समभाव से सहन करता है। इस प्रकार अपने आपको लाघव युक्त (द्रव्य और भाव से हलका) जानता हुआ वह अचेलक साधु तप से सम्पन्न होता है। कायक्लेश आदि तप से युक्त होता है।
(३६२) जहेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमेच्या सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिज्जा एवं तेसिं महावीराणं चिरराइं पुवाई वासाणि रीयमाणाणं दवियाणं पास, अहियासियं।
कठिन शब्दार्थ - अभिसमेच्चा - जानकर, सव्वत्ताए - सर्व रूप से, सर्वात्मा से, सम्मत्तमेव - सम्यक्त्व का ही, सम्यक्तया समत्व का ही, चिरराइं - चिर काल तक, पुष्वाइं वासाणि - बहुत वर्षों तक अर्थात् जीवन पर्यन्त, रीयमाणाणं - संयम में विचरते हुए का, दवियाणं - द्रव्य यानी मुक्ति गमन योग्य।
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