Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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छठा अध्ययन चौथा उद्देशक - ज्ञान ऋद्धि का गर्व
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ज्ञान ऋद्धि का गर्व (३६६)
एवं ते सिस्सा दिया य राओ य अणुपुव्वेण वाइया तेहिं महावीरेहिं पण्णाणमंतेहिं तेसिमंतिए पण्णाणमुवलब्भ हिच्चा उवसमं फारुसियं समाइयंति । कठिन शब्दार्थ - पण्णाणं ज्ञान को, उवलब्भ प्राप्त करके, फारुसियं परुषता
भावार्थ
को - कठोर भाव को, समाइयंति धारण (ग्रहण ) करते हैं। इस प्रकार वे शिष्य दिन और रात में उन महावीर और ज्ञानवंत आचार्यों द्वारा क्रमशः पढ़ाये हुए, प्रशिक्षित किये हुए होने पर भी, ज्ञान प्राप्त करके भी मोहोदय वश उपशम भाव को छोड़ कर परुषता को धारण करते हैं यानी अभिमानी बन कर गुरुजनों का अनादर करने लगते हैं।
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(३७०)
वसित्ता बंभचेरंसि आणं तं णो त्ति मण्णमाणा ।
कठिन शब्दार्थ - वसित्ता निवास करके, बंभचेरंसि - ब्रह्मचर्य में, आणं- आज्ञा को ।
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भावार्थ - वे ब्रह्मचर्य में निवास करके भी (संयम का पालन करते हुए भी) उस आचार्य आदि की आज्ञा को “यह तीर्थंकर की आज्ञा नहीं है" ऐसा मानते हुए गुरुजनों के वचनों की अवहेलना करते हैं।
(३७१)
आघायं तु सोच्चा णिसम्म “समणुण्णा जीविस्सामो" एगे णिक्खंमंते असंभवंता विडज्झमाणा कामेहिं गिद्धा अज्झोववण्णा समाहिमाघायमजोसयंता सत्थारमेव फरुसं वयंति ।
कठिन शब्दार्थ - आघायं - कुशीलों के विपाक को, समणुण्णा - समनोज्ञाः - लोक में माननीय प्रामाणिक होकर, जीविस्सामो जीवन जीएंगे, णिक्खंमंते दीक्षा लेकर मोक्ष मार्ग में चलने के लिए समर्थ न होते हुए,
गृहबंधन से निकल कर, असंभवंता
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