Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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छठा अध्ययन - पांचवां उद्देशक - धर्मोपदेश क्यों, किसको और कैसे? २४६ 8888888888888888888888888888888888888888888
(३८६) एवं से उठ्ठिए ठियप्पा अणिहे अचले चले अबहिल्लेस्से परिव्वए।
कठिन शब्दार्थ - ठियप्पा - स्थितात्मा - आत्मभावों में (मोक्ष मे) स्थित, अणिहे - अस्नेह - राग द्वेष रहित, अचले - अचल - परीषहों उपसर्गों आदि से विचलित न होने वाला, चले - चल - अप्रतिबद्ध विहारी, अबहिल्लेसे - अबर्हिलेश्य - अध्यवसाय (लेश्या) को संयम से बाहर न ले जाने वाला। ___ भावार्थ - इस प्रकार वह मुनि संयम में उत्थित, स्थितात्मा, अस्नेह, अविचल, चल (अप्रतिबद्ध विहारी) और अबर्हिलेश्य होकर संयम में विचरे।
(३६०) संखाय पेसलं धम्म, दिट्टिमं परिणिव्वुडे।
कठिन शब्दार्थ - पेसलं - उत्तम (पवित्र), दिट्ठिमं - सम्यग्दृष्टिमान्, परिणिव्वुडे - परिनिवृत्त - सर्वथा उपशांत।
• भावार्थ - वह सम्यग्दृष्टि मुनि उत्तम धर्म को सम्यक् रूप से जान कर विषय-कषायों को सर्वथा उपशांत करे।
(३६१) - तम्हा संगई पासह, गंथेहिं गढिया णरा विसण्णा कामक्कंता, तम्हा लूहाओ णो परिवित्तसेज्जा। - कठिन शब्दार्थ - संगई - संग - आसक्ति के फल को, गंथेहिं - ग्रंथों में-परिग्रह में, गढिया - ग्रथित - जकड़े हुए गृद्ध, विसण्णा - निमग्न बने हुए, आसक्त, कामक्कंता - कामों से आक्रांत, लूहाओ - रूक्ष - संयम से, ण परिवित्तसेज्जा - भयभीत, उद्विग्न, खेदखिन्न न हो।
भावार्थ - इसलिए संग - विषयासक्ति को, आसक्ति के फल को देखो। बाह्य और आभ्यंतर ग्रन्थि - परिग्रह में गृद्ध और उनमें निमग्न बने हुए पुरुष कामभोगों से आक्रांत होते हैं उन्हें शांति प्राप्त नहीं होती है अतः मुनि निःसंग रूप संयम से, संयम के कष्टों से भयभीत न हो अर्थात् धैर्य पूर्वक संयम का पालन करे।
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