Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR के धर्म में जो सम्यक् प्रकार से उत्थित नहीं है उन शिष्यों का आचार्य दिन रात क्रमशः वाचना आदि से संवर्द्धन - पालन करते हैं-ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - जो साधु असंयम से निवृत्त हो चुका है और प्रशस्त मार्ग में विचरण करता है और जो चिरकाल तक संयम में स्थिर रह चुका है उस मुनि को क्या संयम में अरति उत्पन्न हो सकती है? इस प्रश्न के दो उत्तर संभव है -
१. हाँ, हो सकती है क्योंकि कर्मों का परिणाम विचित्र है और मोह की शक्ति अति प्रबल है अतः ऐसे साधु को संयम में अरति उत्पन्न हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
२. नहीं, उपर्युक्त गुण वाले साधु को कभी अरति उत्पन्न नहीं हो सकती क्योंकि वह उत्तरोत्तर गुणस्थानों को स्पर्श करता हुआ यथाख्यात चारित्र के सन्मुख हो जाता है।
जिस प्रकार जल बाधा से रहित द्वीप समुद्र यात्रियों के लिए शरणभूत होता है उसी प्रकार उपर्युक्त गुण सम्पन्न मुनि दूसरे साधुओं के लिए भी आधारभूत होते हैं। ऐसे गुणों वाला मुनि केवल अपनी ही रक्षा नहीं करता किन्तु दूसरे को भी यदि संयम में अरति उत्पन्न हो जाय तो वह उसे भी दूर करके उसकी रक्षा करता है।
जैसे पक्षी अपने बच्चे का तब तक पालन पोषण करता है जब तक वह उड़ कर अन्यत्र जाने लायक नहीं हो जाता उसी प्रकार आचार्य तब तक अपने शिष्य का पालन - संवर्धन रक्षण करते हैं जब तक वह धर्म में निपुण नहीं हो जाता है। इस प्रकार भगवान् के धर्म में समुद्यित शिष्यों को संसार समुद्र पार करने में समर्थ बना देना परमोपकारक आचार्य अपना कर्त्तव्य समझते हैं।
॥ इति छठे अध्ययन का तृतीय उद्देशक समाप्त॥ छडं अज्झायणं चउत्थोडेसो
छठे अध्ययन का चौथा उद्देशक छठे अध्ययन के तीसरे उद्देशक में शरीर और उपकरणों को कृश (कमी) करने का उपदेश दिया गया है किन्तु वे तब तक पूर्ण रूप से कृश नहीं होते जब तक मनुष्य तीन प्रकार गारव (गौरव) का त्याग नहीं करता है। अतः प्रस्तुत उद्देशक में तीन गौरवों के त्याग का उपदेश दिया जाता है। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार हैं -
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