Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध)
(३७८)
किमणेण भो ? जणेण करिस्सामि त्ति मण्णमाणे एवं पेगे वइत्ता, पियरं हिच्चा, णायओ य परिग्गहं वीरायमाणा समुट्ठाए अविहिंसा सुव्वया दंता, पस्स दीणे उप्पइए पडिवयमाणे ।
कठिन शब्दार्थ - णायओ - ज्ञातिजन, वीरायमाणा - वीर की तरह आचरण करते हुए, अविहिंसा - हिंसा रहित, सुव्वया सुव्रती, उप्पइए - पतित होकर, पडिवयमाणे
गिरते हुए !
भावार्थ - हे भव्यो ! तुम देखो कि कुछ लोग 'इस स्वार्थी स्वजन का मैं क्या करूँगा ?' यह मानते हुए और कहते हुए माता-पिता, ज्ञातिजन और परिग्रह को छोड़ कर वीर की तरह आचरण करते हुए मुनि धर्म में सम्यक् प्रकार से उत्थित होते हैं, प्रव्रजित होते हैं और अहिंसक, सुव्रती और दांत - इन्द्रियों को दमन करने वाले बन जाते हैं। इस प्रकार पहले सिंह की भांति प्रव्रजित होकर फिर दीन बन कर कर्मोदय से पतित होकर संयम से गिर जाते हैं।
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(३७९)
वसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति ।
कठिन शब्दार्थ - वसट्टा
वशार्त्त - इन्द्रियों के वशीभूत, लूसगा - लूषक नाश
करने वाले ।
भावार्थ - वे विषयों से पीड़ित, इन्द्रियों के वशीभूत बने कायर जन व्रतों को नाश करने वाले होते हैं।
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(350)
अहमेगेसिं सिलोए पावए भवइ, से समणे भवित्ता समण - विब्धंते समण
विब्भंते ।
कठिन शब्दार्थ - सिलोए - श्लाघा रूप कीर्ति, पावए - पाप रूप, समण
विब्धते - विभ्रान्त होकर ।
भावार्थ - दीक्षा छोड़ कर पतित बने हुए किसी पुरुष की श्लाघा रूप कीर्ति पाप रूप हो
श्रमण,
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