Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२२४
___ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध)
लोक में भय
(३४२) पास लोए महब्भयं। भावार्थ - इस प्रकार लोक में महान् भय को देखो।
विवेचन - नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव, इन चारों गतियों में पड़े हुए प्राणी अपने अपने कर्मों के फल को भोगने के लिए नाना प्रकार की वेदनाएं सहन करते हैं। कोई जन्म से ही अंधा होकर अनेकविध कष्टों को भोगता है और कोई नेत्र युक्त होकर भी सम्यक्त्व रूपी भाव नेत्र से हीन होता है। कोई नरक गति आदि अंधकार में पड़ा हुआ है तो कोई मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय आदि भाव अंधकार में पड़ा हुआ है। यह भाव अंधकार प्राणियों के लिए महान् दुःखदायी है। इसमें पड़े हुए प्राणी दूसरे प्राणियों का घात करते हैं। इस प्रकार यह लोक महान् भय का स्थान है। यह जान कर जीव को इस संसार से पार जाने के लिए शीघ्र ही रत्नत्रयी - ज्ञान, दर्शन, चारित्र का आश्रय लेना चाहिए।
(३४३) बहुदुक्खा हु जंतवो। भावार्थ - इस संसार में प्राणी निश्चय ही बहुत दुःखी हैं।
(३४४) सत्ता कामेसु माणवा, अबलेण वहं गच्छंति सरीरेणं पभंगुरेण। कठिन शब्दार्थ - अबलेण - बल से रहित, पभंगुरेण - क्षण भंगुर।
भावार्थ - मनुष्य काम भोगों में आसक्त है। वे इस बल रहित (निर्बल) क्षण भंगुर शरीर को सुख देने के लिए वध को प्राप्त होते हैं अर्थात् प्राणियों की हिंसा करते हैं।
(३४५) अट्टे से बहुदुक्खे, इइ बाले पकुव्वइ। एए रोगा बहु णच्चा, आउरा परियावए।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org