Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRREE
सोलस एए रोगा, अक्खाया अणुपुव्वसो। अह णं फुसंति आयंका, फासा य असमंजसा॥
मरणं तेसिं संपेहाए, उववायं चवणं च णच्चा, परियागं च संपेहाए, तं सुणेह जहा तहा।
कठिन शब्दार्थ - गंडी - गण्डमाला, रायंसी - राजयक्ष्मा - क्षय रोग, अवमारियं - अपस्मार - मृगी रोग, काणियं - काणा, झिमियं - जड़ता - शरीर के अवयवों का शून्य हो जाना, कुणियं - कुणित्व - हस्तकटा या पैरकटा अथवा एक हाथ या पैर छोटा और एक बड़ा, खुजियं - कुब्ज - कुबडापन, उदरिं - उदर रोग, मूयं - मूक रोग (गंगापन) सूणियं - शोथरोगसूजन, गिलासिणिं - भस्मक रोग, वेवई - कम्पनवात्, पीढसप्पिं - पीठसर्पि - पंगुता, सिलिवयं - श्लीपद रोग (हाथी पगा), महुमेहणिं - मधुमेह, आयंका - आतङ्क, असमंजसा - असमंजस-जीवन को शीघ्र नष्ट करने वाले - अप्रत्याशित, परियागं - परिणाम को।
भावार्थ - ये सोलह रोग क्रमशः कहे गये हैं। इनको देखो - १. गण्डमाला २. कोढ़ ३. राजयक्ष्मा ४. मृगी ५ कानापन ६. जड़ता - अंगोपांगों में शून्यता ७. कुणित्व - ढूंटापन ८. कुबडापन ६. उदर रोग - जलोदर, अफारा, उदरशूल आदि १०. मूक (गूंगापन) ११. सूजन १२. भस्मक १३. कम्पनवात् १४. पीठसी १५. श्लीपद और १६. मधुमेह ।
ये शूलादि रोग और आतंक तथा जीवन को शीघ्र नष्ट करने वाले अन्य दुःखों के स्पर्श प्राप्त होते हैं।
उन मनुष्यों के मरण को देखकर, उपपात (उत्पत्ति) और च्यवन को जान कर तथा कर्मों के फल (परिणाम) का भलीभांति विचार साधक ऐसा पुरुषार्थ करे कि पूर्वोक्त रोगों का एवं दुःखों का भाजन ने बनना पड़े। कर्मों के फल को जैसा है वैसा सुनो।
. विवेचन - इस संसार में जीव अपने कृत कर्मों का फल भोगने के लिए गण्डमाला, मूर्छा, कोढ़, मृगी आदि नाना प्रकार के रोगों से पीड़ित होते रहते हैं। अतः शास्त्रकार उपदेश देते हैं कि हे भव्यजीवो! गृहवास एवं विषय भोगों में आसक्त रहने वाले प्राणियों को विविध रोगों से पीड़ित देख कर तथा बार-बार जन्म-मरण के दुःखों का विचार कर ऐसा कार्य करो कि 'जिससे इन रोगों का शिकार न बनना पड़े और जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा हो जाय।
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