Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
छठा अध्ययन - प्रथम उद्देशक - भाव-अंधकार
88888888888888
२२३
88888
भाव-अंधकार
(३४०) संति पाणा अंधा तमंसि वियाहिया, तामेव सई असई अइ अच्च उच्चावयफासे पडिसंवेएइ, बुद्धेहिं एवं पवेइयं।
कठिन शब्दार्थ - तमंसि - अंधकार में - नरक गति आदि द्रव्य अंधकार में और मिथ्यात्व आदि भाव अंधकार में रहे हुए, सई - एक बार, असई - अनेक बार, अइ अच्चप्राप्त करके, उच्चावयफासे - तीव्र और मंद (ऊँचे-नीचे) स्पर्शों (दुःखों) को, पडिसंवेएइ - प्रतिसंवेदन करते हैं। - भावार्थ - इस संसार में ऐसे प्राणी कहे गये हैं जो अंधे (द्रव्य और भाव से अंधे) हैं और अंधकार में ही रहते हैं। वे उसी अवस्था को एक बार और अनेक बार प्राप्त करके तीव्र और मंद दुःखों को भोगते हैं। यह सर्वज्ञ पुरुषों (तीर्थंकरों) ने कहा है।
(३४१) संति पाणा वासगा, रसगा उदए उदएचरा आगासगामिणो, पाणा पाणे किलेसंति।
कठिन शब्दार्थ - वासगा - वर्षज - वर्षाऋतु में उत्पन्न होने वाले मेंढक आदि अथवा वासक - भाषा लब्धि सम्पन्न बेइन्द्रिय आदि, रसजा - रसज - रस में उत्पन्न होने वाले कृमि आदि अथवा रसग - रसज्ञा (संज्ञी जीव), उदए - उदक रूप - अप्काय के जीव, उदएचरा - जल में रहने वाले जलचर आदि, आगासगामिणो - आकाशगामी - नभचर आदि, किलेसंतिकष्ट देते हैं।
भावार्थ - और भी अनेक प्रकार के प्राणी होते हैं, जैसे - वर्षा ऋतु में उत्पन्न होने वाले मेंढक आदि अथवा भाषा लब्धि सम्पन्न बेइन्द्रिय आदि प्राणी, रस में उत्पन्न होने वाले कृमि आदि जन्तु अथवा रस को जानने वाले संज्ञी जीव, अप्कायिक जीव या जल में उत्पन्न होने वाले या जलचर जीव आकाशगामी आकाश में उड़ने वाले पक्षी आदि। वे प्राणी अन्य प्राणियों को कष्ट देते हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org