Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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___ छठा अध्ययन - प्रथम उद्देशक - धूत बनने की प्रक्रिया
२२७ BRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRREE वाले, अज्झोववण्णा - अध्युपपन्ना - हमे तुम पर विश्वास है, स्नेह है, अक्कंदकारी - आक्रन्दन करते हुए, जणगा - माता पितादि, रुयंति - रुदन करते हैं, अतारिसे मुणी - मुनि नहीं हो सकता है, ण ओहं तरए- संसार को पार नहीं कर सकता है, विप्पजढा - छोड़ दिया है। - भावार्थ - संयम के लिए उद्यत उस पुरुष के प्रति उसके माता-पिता आदि रोते हुए इस प्रकार कहते हैं कि - तुम हमें मत छोड़ो, हम तुम्हारी इच्छानुसार व्यवहार करेंगे, तुम पर हमें भरोसा है, ममत्व है, इस प्रकार आक्रन्दन करते हुए वे रुदन करते हैं। वे कहते हैं कि जिसने माता पिता को छोड़ दिया है ऐसा मुनि नहीं हो सकता है और न ही वह संसार सागर को पार कर सकता है।
(३४६) सरणं तत्थ णो समेइ कहं णु णाम से तत्थ रमइ? एयं णाणं सया समणुवासिज्जासि त्तिं बेमि।
॥छटुं अज्झयणं पढमोद्देसो समत्तो॥ ‘कठिन शब्दार्थ - णो समेइ - स्वीकार नहीं करता है, रमइ - रमण करता है, समणुवासिज्जासि- स्थापित कर ले, हृदय में बसा ले।
__ भावार्थ - पारिवारिकजनों के इस प्रकार के कथन को सुन कर उनकी शरण में नहीं जाता उनके वचनों को स्वीकार नहीं करता। क्योंकि वह तत्त्वज्ञ पुरुष (ज्ञानी) गृहवास में कैसे रमण कर सकता है? मुनि इस ज्ञान को सदा अपनी आत्मा में स्थापित कर ले, अपने हृदय में बसा ले। ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - संसार के स्वरूप को भलीभांति जान कर जो पुरुष प्रव्रज्या अंगीकार करने को तैयार होता है, उसके माता-पिता आदि संबंधीजन मोह-ममता भरी बातें करके उसको गृहवास में रखने की कोशिश करते हैं किन्तु वह विवेकी पुरुष गृहवास को समस्त दुःखों का कारण समझ कर उसका त्याग कर देता है और संयम स्वीकार कर आठ कर्मों को धूनने - क्षय करने के लिए अग्रसर हो जाता है।
|| इति छठे अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त।
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