Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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पांचवाँ अध्ययन - पांचवां उद्देशक - विचिकित्सा को दूर करने का उपाय २०५ 8888888888888888888888888888888888888888RRRRRRRRR और निर्मल ज्ञान से युक्त होते हैं। वे दोष रहित सुख विहार योग्य (सम) क्षेत्र में रहते हैं अथवा रत्नत्रयी रूप समता की भावभूमि में रहते हैं। उनके कषाय उपशांत हो चुके हैं या जिनका मोह कर्म रज उपशांत हो गया है। जो छह जीवनिकाय या संघ के रक्षक हैं अथवा दूसरों को सदुपदेश देकर नरक आदि दुर्गतियों से बचाते हैं और श्रुतज्ञान रूप स्रोत के मध्य में रहते हैं।
विचिकित्सा का परिणाम
(३१३) वितिगिच्छासमावण्णेणं अप्पाणेणं णो लभइ समाहिं। भावार्थ - विचिकित्सा प्राप्त (संशय युक्त) आत्मा समाधि को प्राप्त नहीं कर सकती है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में विचिकित्सा का फल बताया गया है। विचिकित्सा से मन में खिन्नता पैदा होती है जिस कारण जीव समाधि को प्राप्त नहीं कर पाता। विचिकित्सा ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों में हो सकती है।
ज्ञान विचिकित्सा - आगमोक्त ज्ञान सच्चा है या झूठा? इस ज्ञान को लेकर कहीं मैं धोखा तो नहीं खा जाऊँगा? ऐसी शंका रखना।
दर्शन विचिकित्सा - मैं भव्य हूँ या नहीं? ये जो नौ तत्त्व या षट् द्रव्य हैं क्या ये सत्य हैं? अर्हन्त और सिद्ध कोई होते हैं या यों ही इनकी कल्पना की गई है आदि शंकाएं करना।
चारित्र विचिकित्सा - इतने कठोर तप, संयम और महाव्रत रूप चारित्र का कुछ सुफल मिलेगा या यों ही व्यर्थ का कष्ट सहना है आदि।
- इस प्रकार की विचिकित्सा (शंकाएं) साधक के चित्त को अस्थिर, भ्रान्त, अस्वस्थ और असमाधि युक्त बना देती है। अतः साधक को विचिकित्सा नहीं करनी चाहिये। ... विचिकित्सा को दूर करने का उपाय
(३१४) सिया वेगे अणुगच्छंति, असिया वेगे अणुगच्छंति, अणुगच्छमाणेहिं अणणुगच्छमाणे कहं ण णिविजे, तमेव सच् णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं।
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