Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र ( प्रथम श्रुतस्कन्ध )
अप्रशस्त ( एकाकी ) चर्या के दोष
(२७३)
इहमेगेसिं एगचरिया भवइ, से बहुकोहे - बहुमाणे - बहुमाए - बहुलोहे - बहुरए -. बहुणडे - बहुसढे - बहुसंकप्पे, आसवसक्की पलिउच्छण्णे उट्ठियवायं पवयमाणे "मा मे केइ अदक्खू' अण्णाणपमायदोसेणं, सययं मूढे धम्मं णाभिजाणइ |
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कठिन शब्दार्थ - एगचरिया एक चर्या एकाकी विचरण करना, बहुरए - बहुरत:पाप कर्म में बहुत रत अथवा बहुत कर्म रज वाला, बहुणडे - बहुनटः - लोगों को ठगने के लिए नट की तरह अनेक रूप धारण करने वाला, बहुसढे - बहुत शठता प्रवंचना वाला, बहुसंकप्पे - बहुत संकल्प वाला, आसवसक्की आस्रवों में आसक्त, कर्मों से आच्छादित, उट्ठियवायं - उत्थितवाद को स्वयं को संयम में उत्थित बताने की माया पूर्ण उक्ति को, मा मे केइ अदक्खू मुझे कोई देख न ले, अण्णाणपमाय दोसेणं अज्ञान व प्रमाद के दोष से, सययं सतत, णाभिजाणइ - नहीं जानता है।
पलिउच्छपणे
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भावार्थ - इस संसार में कुछ साधकों की विषय कषाय के कारण एकचर्या होती है यानी वे अकेले विचरण करते हैं किन्तु वे बहुत क्रोधी, बहुत मानी, बहुत मायी, बहुत लोभी, पाप कर्म में बहुत रत रहने वाले या बहुत कर्म रज वाले, जगत् को ठगने के लिए नट की तरह बहुरूपिया, अत्यंत शठ, बहुत संकल्प वाले, हिंसादि आस्रवों में आसक्त और कर्मों से आच्छादित होते हैं। वे "हम भी साधु हैं, धर्माचरण के लिए उद्यत हुए हैं" इस प्रकार से उत्थितवाद बोलते हैं। 'मुझ को कोई देख न ले' इस आशंका से छिंप कर पाप कर्म करते हैं वे अज्ञान और प्रमाद के दोष से सतत मूढ़ बने हुए धर्म को नहीं जानते हैं ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में एकाकी विचरण करने वाले नामधारी साधुओं के दोषों का चित्रण किया गया है।
साधक के लिए एकचर्या दो प्रकार की कही गई है - १. प्रशस्त और २. अप्रशस्त । इन दोनों प्रकार की एकचर्या के भी दो भेद हैं - १. द्रव्य एक चर्या और २. भाव एकचर्या । द्रव्य से प्रशस्त एकचर्या तब होती है जब प्रतिमाधारी, जिनकल्पी या संघादि के किसी महत्त्वपूर्ण कार्य या साधना के लिए एकाकी विचरण स्वीकार किया जाय। जिस एकचर्या के पीछे विषय लोलुपता हो.
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