Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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पांचवाँ अध्ययन - तृतीय उद्देशक - अपरिग्रही कौन?
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पंचम अज्झयणं तइओखेसो
पांचवें अध्ययन का तृतीय उद्देशक पांचवें अध्ययन के दूसरे उद्देशक में अविरत पुरुष को परिग्रही कहा है। अब तीसरे उद्देशक में अपरिग्रही पुरुष का वर्णन किया जाता है। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार हैं -
अपरिग्रही कौन?
(२८९)
... आवंती केयावंती लोयंसि अपरिग्गहावंती एएसु चेव अपरिग्गहावंती सोच्चा वई मेहावी, पंडियाणं णिसामिया।
कठिन शब्दार्थ - अपरिग्गहावंती - अपरिग्रही - परिग्रह से रहित, वई - वचन, पंडियाणं- पंडितों के, णिसामिया - हृदय में विचार कर।
भावार्थ - इस लोक में जितने भी अपरिग्रही हैं वे इन वस्तुओं में मूर्छा ममत्व आसक्ति नहीं रखने के कारण ही अपरिग्रही हैं। अतः मेधावी साधक तीर्थंकरों की आगम रूपी वाणी सुन कर तथा गणधर एवं आचार्य आदि पंडितों के वचन हृदयंगम करके अपरिग्रही होते हैं।
विवेचन - तीर्थंकर भगवान् के उपदेश को सुन कर एवं तीर्थंकरोक्त आगम के रहस्य को जान कर जो पुरुष अल्प या बहुत सब प्रकार के परिग्रह का त्याग कर देते हैं, वे अपरिग्रही होते हैं।
(२६०) समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए जहित्थ मए संधी झोसिए एवमण्णत्थ संधी दुज्झोसए भवइ, तम्हा बेमि णो णिण्हवेज वीरियं।
कठिन शब्दार्थ - समियाए - समता में, समता से, आरिएहिं - आर्यों - तीर्थंकरों ने, जहा - जिस प्रकार, इत्थ - इस धर्म - ज्ञान, दर्शन, चरित्र रूप धर्म से, संधी - कर्म संतति का, झोसिए - क्षय किया है, अण्णत्थ - अन्यत्र, दुज्झोसए - क्षय करना (दुःसाध्य) कठिन है, वीरियं - वीर्य (शक्ति) को, णो णिण्हवेज्ज - छिपाना नहीं चाहिये।
भावार्थ - आर्यों (तीर्थंकरों) ने समता में धर्म कहा है अथवा आर्यों ने समभाव से धर्म कहा है। भगवान् ने फरमाया है कि जिस प्रकार मैंने ज्ञान दर्शन चारित्र रूप धर्म से कर्म का
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