Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२००
आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) இக்கக்
उद्दायंति, इहलोगवेयणवेजावडियं जं आउट्टीयं कम्मं तं परिण्णाय विवेगमेइ, एवं से अप्पमाएणं विवेगं किट्टइ वेयवी।
कठिन शब्दार्थ - गुणसमियस्स - गुणों से समित (गुण युक्त), रीयओ - भलीभांति प्रवृत्ति करते हुए, कायसंफासं - काया का स्पर्श, समणुचिण्णा - पाकर, उद्दायंति - मर जाते हैं या परिताप पाते हैं, इहलोगवेयणवेज्जावडियं - इस लोक में वेदन करके, आउट्टीयं कम्मं - आकुट्टि - जानबूझ कर किया हुआ हिंसादि कर्म।
भावार्थ - किसी समय यतनापूर्वक प्रवृत्ति करते हुए गुणयुक्त साधु के शरीर का स्पर्श पाकर कोई प्राणी मर जाते हैं, परिताप पाते हैं तो उसके इस जन्म में वेदन करने योग्य कर्म का बन्ध हो जाता है किंतु आकुट्टि से - जानबूझ कर हिंसादि कर्म किया जाता है तो उसका ज्ञ परिज्ञा से जान कर प्रायश्चित्त से शुद्धि करे। इस प्रकार उस कर्म का ज्ञाता पुरुष (आगमवेत्ता) अप्रमाद से यानी प्रायश्चित्त के द्वारा विवेक अर्थात् क्षय होना बताते हैं। .. विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अप्रमत्त (ईर्यासमिति पूर्वक गमन करने वाले) साधक और प्रमत्त साधक से होने वाले आकस्मिक जीव वध के विषय में चिंतन किया गया है। एक समान प्राणिवध होने पर भी कषायों की तीव्रता - मंदता या परिणामों की धारा के अनुसार अलगअलग कर्मबंध होता है यानी परिणामों के भेद से कर्मबंध में भेद होता है जिसका परिणाम उस प्राणी को मारने का नहीं है, उसका फल इसी भव में प्राप्त हो जाता है किंतु यदि जान बूझ कर किसी प्राणी का घात किया गया हो तो प्रायश्चित्त के द्वारा उसकी शुद्धि होती है, यह आगम के ज्ञाता लोग बताते हैं।
आगमों में दस प्रकार के प्रायश्चित्त बताये गये हैं -
१. आलोचनार्ह २. प्रतिक्रमणार्ह ३. तदुभयाई ४. विवेकार्ह ५. व्युत्सर्गार्ह ६. तपाई ७. छेदार्ह ८. मूलाई ६. अनवस्थाप्याई और १०. पाराञ्चिकाह।
(३०८) से पभूयदंसी पभूयपरिणाणे उवसंते समिए सहिए सया जए, दई विप्पडिवेएइ अप्पाणं, "किमेस जणो करिस्सइ? एस से परमारामो जाओ लोगंमि इत्थीओ" मुणिणा हु एवं पवेड्यं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org