Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) BRREERBERega@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ द्वेष (स्नेह) रहित होकर एक मात्र आत्मा को देखता हुआ (आत्मा के एकत्व भाव को जान कर) शरीर (कर्म शरीर) को धुन डाले।
तप का महत्त्व
(२४७) कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं। कठिन शब्दार्थ - कसेहि - कृश करे, जरेहि - जीर्ण कर डाले। .. भावार्थ - तपस्या के द्वारा अपनी कषाय आत्मा (शरीर) को कृश करे, जीर्ण कर डाले।
. (२४८) जहा जुण्णाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थइ, एवं अत्तसमाहिए अणिहे। , .
कठिन शब्दार्थ - जुण्णाई - जीर्ण, कट्ठाई - काष्ठ को, हव्ववाहो - अग्नि, पमत्थइजला डालती है, अत्तसमाहिए - समाहित आत्मा वाला - आत्म समाधि वाला।
भावार्थ - जैसे जीर्ण काष्ठ को अग्नि शीघ्र जला डालती है उसी प्रकार आत्म - समाधि वाला वीतराग पुरुष तपस्या के द्वारा कर्म शरीर को (कषायात्मा को) शीघ्र जला डालता है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में कषाय आत्मा को सम्यक् तप से कृश-जीर्ण करने का निर्देश किया गया है, कर्मों को नष्ट करने का तप ही सम्यक् उपाय है।
'आणाकंखीपंडिए' - जो पुरुष तीर्थंकर भगवान् की आज्ञानुसार आचरण करता है वह . पण्डित है। ऐसा पुरुष कर्मों से लिप्त नहीं होता है।
'एगमप्पाणं संपेहाए' से शास्त्रकार फरमाते हैं कि यह आत्मा अकेला है। अतः सदैव यह विचार करना चाहिये कि मैं सदा अकेला हूँ, मेरा कोई भी नहीं है और मैं किसी का नहीं हूँ। इस जगत् में प्राणी अकेला ही कर्म करता है और अकेला ही उसका फल भोगता है। अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मरता है, तथा अकेला ही परलोक में जाता है। अतः तप के द्वारा इस शरीर को कृश एवं जीर्ण कर डालो।
कसेहि अप्पाणं में आत्मा से अर्थ है - कषायात्मा रूप कर्म शरीर। कर्म शरीर को कृश, प्रकम्पित एवं जीर्ण करना चाहिये। बाह्य शरीर की कृशता यहाँ गौण है। मुख्यता है - तप के
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