Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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चौथा अध्ययन - चौथा उद्देशक - सम्यक्त्व-प्राप्ति 888888888888 888888888888888888888888888888
(२६२) जे खलु भो! वीरा ते समिया सहिया सया जया संघडदंसिणो आओवरया अहातहं लोगमुवेहमाणा पाईणं पडीणं दाहिणं उईणं इइ सच्चंसि परिचिटुिंसु।
कठिन शब्दार्थ - संघडदंसिणो - सतत शुभाशुभदर्शी, आओवरया - आत्मोपरतपाप कर्मों से उपरत (निवृत्त) अहातहं - यथातथ्य, उवेहमाणा - देखते हुए, पाईणं - पूर्व पडीणं - पश्चिम, दाहिणं - दक्षिण, उईणं - उत्तर, सच्चंसि - सत्य में, परिचिटुिंसु - स्थित हो चुके हैं।
भावार्थ - हे आर्य! जो साधक वीर (कर्मों को विदारण करने में समर्थ) हैं, वे समित (समितियों से युक्त), सहित (ज्ञानादि से युक्त), सदा संयत, निरन्तर शुभ और अशुभ को देखने वाले और पाप कर्मों से निवृत्त हैं, लोक जैसा है उसे वैसा ही देखते हैं। पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर - सभी दिशाओं में सत्य (संयम) में स्थित हो चुके हैं।
साहिस्सामो णाणं वीराणं समियाणं सहियाणं, सया जयाणं संघडदंसिणं आओवरयाणं अहातहा लोगं समुवेहमाणाणं किमत्थि उवाही? पासगस्स ण विजइ णत्थि त्ति बेमि।
॥ चउत्थं अज्झयणं चउत्थोद्देसो समत्तो॥
॥ सम्मत्तं णामं चउत्थमज्झयणं समत्तं॥ कठिन शब्दार्थ - साहिस्सामो - कहूँगा, तीर्थंकरों के उपदेश का कथन करूँगा, उवाहीउपाधि, पासगस्स - पश्यकस्य - सत्य द्रष्टा - सम्यक् अर्थ को देखने - जानने वाला।
भावार्थ - उन वीर समित, सहित, सदा संयत, निरन्तर शुभाशुभ को देखने वाले, पाप कर्म से निवृत्त लोक के यथार्थ स्वरूप को देखने वाले ज्ञानियों के सम्यग् ज्ञान का कथन करूँगा, उपदेश करूँगा। क्या सत्यद्रष्टा सम्यक् अर्थ को जानने वाले ज्ञानीपुरुष को कोई कर्म जनित उपाधि होती है या नहीं होती? नहीं होती है - ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - तीर्थंकर भगवान् की आज्ञानुसार आचरण करने वाले पांच समिति तीन गुप्ति
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