Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र ( प्रथम श्रुतस्कन्ध )
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आगमकार ने 'गुरू से कामा' - कामभोगों को 'गुरु' कहा है। जब तक जीव कामभोगों को नहीं छोड़ता है तब तक वह जन्म, जरा, मरण और रोग शोक से पीड़ित हो कर मोक्ष के सुख से सदा दूर रहता है। रोगी होने के कारण वह पूर्ण रूप से विषय सुख को भी नहीं भोग सकता है और विषय भोग की इच्छा (विषयेच्छा) बनी रहने के कारण वह विषयों का त्यागी भी नहीं कहा जा सकता है।
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अज्ञानी जीव की मोहमूढता (२६५)
से पास फुसियमिव कुसग्गे पणुण्णं णिवइयं वाएरियं, एवं बालस्स जीवियं मंदस्स अवियाणओ ।
कठिन शब्दार्थ - फुसियमिव - जल बिन्दु के समान, कुसग्गे - कुश के अग्रभाग पर, पणं - हिलते हुए, णिवइयं गिर जाता है, वाएरियं वायु से प्रेरित, बालस्स ( अज्ञानी) के, मंदस्स - मंद (मंद बुद्धि) का, अवियाणओ
बाल
अविजान नहीं जानता हुआ ।
अग्रभाग पर स्थित और वायु के
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भावार्थ - वह पुरुष (सम्यक्त्वी, कामना त्यागी) कुश के झोंके से प्रकम्पित होकर गिरते हुए जल बिन्दु के समान इस जीवन को देखता है। बाल (अज्ञानी) एवं मंद का जीवन भी इसी तरह अस्थिर है किन्तु मोह वश वह इसे नहीं जान पाता है ।
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(२६६)
कूराई कम्माई बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विपरियासमुवेइ, मोहेण गब्भं मरणाइ एइ एत्थ मोहे पुणो पुणो ।
कठिन शब्दार्थ - कूराई - क्रूर, पकुव्वमाणे- करता हुआ, दुक्खेणं - दुःख से, मोहेण मोह से, विपरियासमुवेइ - विपर्यास भाव को प्राप्त होता है, मरणाइ आदि को, एइ - प्राप्त करता है ।
मरण
भावार्थ वह अज्ञानी हिंसादि क्रूर कर्म करता हुआ दुःख को उत्पन्न करता है तथा उस दुःख से मूढ़ बना हुआ विपर्यास भाव को प्राप्त होता है यानी सुख के स्थान पर दुःख को प्राप्त करता है। मोह से गर्भ और मरण आदि को प्राप्त करता है तथा वह बार-बार इस मोहमय अनादि अनंत संसार में परिभ्रमण करता रहता है।
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