Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
१६८
आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) . RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR@@@@@@
कठिन शब्दार्थ - णिव्वुडा - निवृत्त, अणियाणा - अनिदान - निदान रहित।
भावार्थ - जो पुरुष तीर्थंकर भगवान् के उपदेश से पाप कर्मों से निवृत्त हैं वे अनिदाननिदान रहित (बंध के मूल कारणों से रहित) परम सुखी कहे गये हैं।
(२५२) तम्हाऽतिविजो णो पडिसंजलिजासि त्ति बेमि।
॥ चउत्थं अज्झयणं तडओहेसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ - अतिविजो (अइविजो) - अति विद्वान्, प्रबुद्ध, शास्त्र के रहस्य को जानने वाला, णो पडिसंजलिजासि - प्रज्वलित न करे।
भावार्थ - इसलिए विद्वान् पुरुष क्रोध (कषाय) अग्नि से अपनी आत्मा को न जलावे। ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - क्रोधादि कषायों से विभिन्न दुःख एवं संक्लेश उत्पन्न होते हैं। ऐसा जान कर कषायों का त्याग कर देना चाहिये। जो क्रोध आदि कषायों का त्याग कर देते हैं, वे परम सुखी होते हैं।
॥ इति चौथे अध्ययन का तृतीय उद्देशक समाप्त॥ चउत्थं अज्झयणं चउत्थोदेसो
चौथे अध्ययन का चौथा उद्देशक चौथे अध्ययन के तीसरे उद्देशक में तप का वर्णन किया गया है। वह तप उत्तम संयम में स्थित साधु के द्वारा ही हो सकता है। अतः इस चौथे उद्देशक में संयम का वर्णन किया जाता है। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है
संयम में पुरुषार्थ
(२५३) आवीलए पवीलए णिप्पीलए, जहित्ता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसमं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org