Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 888888888888888888 सकते हैं। इस प्रकार संसार के जितने भी पदार्थ हैं वे सभी अनेक धर्मात्मक हैं। अतः किसी भी वस्तु, घटना, प्रवृत्ति, क्रिया, भावधारा या व्यक्ति के संबंध में एकांगी दृष्टि से सही निर्णय नहीं दिया जा सकता। एक ही क्रिया को करने वाले दो व्यक्तियों के परिणामों की धारा अलग-अलग होने से एक उससे कर्म बंधन कर लेगा, दूसरा उसी क्रिया से कर्म निर्जरा कर लेगा।
(२३३) एए पए संबुज्झमाणे लोयं च आणाए अभिसमिच्चा पुढो पवेइयं।
कठिन शब्दार्थ - एए - इन, पए - पदों को, संबुज्झमाणे - सम्यक् प्रकार से समझ कर, अभिसमिच्चा - सम्यक् रूप से जान कर। ____ भावार्थ - इन पदों को सम्यक् प्रकार से समझ कर और लोक को तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा के अनुसार सम्यक् प्रकार से जान कर (आस्रव और संवर को पृथक्-पृथक् समझ कर) आस्रवों का सेवन न करें।
(२३४) आघाइ णाणी इह माणवाणं संसारपडिवण्णाणं संबुज्झमाणाणं विण्णाणपत्ताणं, अट्टावि संता अदुवा पमत्ता, अहा सच्चमिणंत्ति-बेमि।
- कठिन शब्दार्थ - आघाइ - धर्म का कथन करते हैं, संसार पडिवण्णाणं - संसार प्रतिपन्न - संसार को प्राप्त, विण्णाणपत्ताणं - विज्ञान प्राप्त, अट्टा - आर्त, इणं - यह सब, अहा-सच्वं - यथातथ्य - सत्य।
भावार्थ - ज्ञानी पुरुष संसार प्रतिपन्न, धर्मोपदेश को समझने के लिए उत्सुक, विज्ञान प्राप्त मनुष्यों को धर्म का कथन (उपदेश) करते हैं। जो आर्त्त अथवा प्रमत्त हो गये हैं वे जिस प्रकार समझ सके उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष उपदेश देते हैं अथवा आर्त या प्रमत्त भी कर्मों का क्षयोपशम होने पर अथवा शुभ अवसर मिलने पर धर्माचरण कर सकते हैं। यह यथातथ्य - सत्य है - ऐसा मैं कहता हूँ। - विवेचन - सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर प्रभु संसारी प्राणियों को इस तरह उपदेश देते हैं जिससे वे हित की प्राप्ति और अहित का त्याग करने में समर्थ हो सकते हैं।
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